बिहार : किताबें मिली नहीं तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे? नाकाम रही सरकार

Update: 2017-11-17 06:56 GMT

किताबें मिली नहीं तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे? बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो परीक्षा में अच्छा कैसे करेंगे? सत्र शुरू हुए कितने दिन गुजर गए, कब देंगे किताबें? यह सवाल बिहार सरकार के लिए नया नहीं है। पटना हाईकोर्ट हर साल किसी न किसी तारीख को बिहार सरकार से यह सवाल पूछ ही लेता है। सरकार हर साल कोई तारीख लेती है। ताकीद मिलती है। और फिर, अगले साल के लिए वही तैयारी शुरू हो जाती है। इस बार भी साल के 200 दिन गुजर जाने पर पटना हाईकोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई है। चार हफ्ते में अंतिम जवाब देना है। यानी, करीब महीनाभर में सरकार को स्कूलों में किताबें उपलब्ध कराना है। अगर 230 दिनों में किताबें मिल भी जाएंगी तो कोर्स पूरा कैसे और कौन कराएगा?

शिशिर कुमार सिन्हा की रिपोर्ट

पटना। बाल दिवस के दिन बिहार सरकार को पटना हाईकोर्ट में बच्चों के ही एक मुद्दे पर सिर झुकाए आदेश सुनना पड़ा। वजह वही शिक्षा है, जिसे लेकर सरकार लगातार कसीदे कढ़ती रही है। एक तरफ साक्षरता और शिक्षा का ग्राफ ऊपर चढऩे का दावा किया जाता रहा है और दूसरी तरफ मैट्रिक परीक्षा के परिणाम अंतिम तौर पर सामने ला रहे कि बिहार के सरकारी स्कूल बच्चों को मजबूत आधार नहीं दे पा रहे। 14 नवंबर को पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार को चार हफ्ते की मोहलत दी गई कि वह सरकारी विद्यालयों में फ्री किताबों की उपलब्धता पर स्थिति स्पष्ट करे। हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल होना और सरकार को समय देकर किताब उपलब्ध कराने का दबाव डालना एक तरह से हर साल की औपचारिकता है, जिससे राज्य सरकार का पीछा नहीं छूट रहा है।

2008-09 का रिकॉर्ड टूटना है बाकी

बिहार में जमीनी पड़ताल करने पर सामने आता है कि गांवों के भी साधन संपन्न बच्चे अपने जिला मुख्यालय या राजधानी के निजी स्कूलों का रुख करते हैं। जो ऐसा नहीं कर सकते या कर पाते, उनके लिए सरकारी स्कूल आज भी बड़ा संबल हैं। लेकिन, इन स्कूलों में भी शिक्षा का अधिकार के तहत फ्री किताबें नहीं मिल रही हैं। बिहार में 14 साल तक के बच्चों को फ्री किताबें उपलब्ध कराने का रिकॉर्ड लगातार खराब ही चल रहा है। जब शिक्षा का अधिकार लागू नहीं था, तब भी यही हालत थी। ‘अपना भारत’ के पास उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो वित्तीय वर्ष 2007-08 में जहां सत्र शुरू होने के 76 दिनों के बाद स्कूलों को किताबें उपलब्ध करा दी गईं, वहीं अगले साल किताबों के विलंब से पहुंचने का रिकॉर्ड कायम हो गया। वित्तीय वर्ष 2008-09 में रिकॉर्ड 260 दिनों के बाद किताबें आईं। इस साल किताबों को लेकर सरकार की बहुत किरकिरी हुई, फिर भी इस रिकॉर्ड में बहुत सुधार नहीं हुआ। वित्तीय वर्ष 2009-10 में भी चालू वित्तीय वर्ष जैसी ही स्थिति रही थी। लगभग 230 दिनों में किताबें स्कूल पहुंच सकी थीं।

छह-सात साल से सुधार के बाद फिर बिगाड़

बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन सरकार के दबाव के कारण पिछले छह-सात वर्षों में अपनी हालत में थोड़ा सुधार लाया था, लेकिन एक बार फिर पुरानी स्थिति लौट रही है। पिछले छह-सात वर्षों में सत्र शुरू होने के औसतन 150-170 दिनों के बाद किताबें उपलब्ध कराई जाती रही हैं, लेकिन इस बार 200 दिन बीत जाने के बावजूद अब तक स्कूली छात्र किताबों के इंतजार में पुरानी किताबों को ही मिल-झांक कर पढ़ रहे हैं।अपना भारत’ की पड़ताल बताती है कि पहले बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन खुद छपाई में सक्रिय रहता था, लेकिन सेवानिवृत होते ​कर्मियों की जगह नए ​कर्मियों की नियुक्ति नहीं होने और अनुकंपा नियुक्तियों में भी सरकारी लापरवाही के कारण कॉरपोरेशन का पूरा सेटअप खत्म हो गया है। अब यह काम कराने वाली एजेंसी के रूप में कार्यरत है, जिसके हर साल देशभर के विभिन्न प्रिंटर्स से करीब 10 लाख किताबें छपवा कर मंगानी होती हैं। इन किताबों के प्रकाशन के लिए प्रिंटर्स के चयन से लेकर उनके भुगतान तक की प्रक्रिया में जटिलता है।

किताबें जिन मशीनों पर छपती आई हैं, वह मशीनें अब बहुत कम प्रिंटर्स के पास हैं। उनकी गति भी नई मशीनों जैसी नहीं रहती है और न ही आॢथक फायदा ही ज्यादा रहता है। खास फायदा नहीं देख इम्पैनल प्रिंटर्स भी जल्दी और ज्यादा काम नहीं लेना चाहते। जिन्हें काम मिलता भी है, वह दबाव में काम से पहले ही इनकार कर देते हैं। चूंकि कार्य आवंटन की प्रक्रिया ही लंबी भखच जाती है, इसलिए कॉरपोरेशन अमूमन अंतिम समय तक बहुत दबाव नहीं बनाता। कई बार जब सरकार को हाईकोर्ट में ऐसी ही किसी जनहित याचिका पर शर्मशार होना पड़ा तो कॉरपोरेशन के जरिए प्रिंटर्स पर दबाव देकर जैसे-तैसे स्कूलों को किताबें उपलब्ध कराई गईं।

गोदाम बन गया कॉरपोरेशन का बड़ा परिसर

राजधानी पटना में बुद्ध मार्ग स्थित बिहार स्टेट टेक्स्टबुक कॉरपोरेशन का बड़ा-सा परिसर अब गोदाम बन कर रह गया है। कहीं सड़ी-गली पुरानी किताबों का ढेर है तो कहीं पुरानी मशीनों का कबाड़ रूप दिखता है। इस हकीकत को दुनिया की नजर से छिपाने के लिए सख्ती के साथ यहां सुरक्षा प्रहरी तैनात रहते हैं। कॉरपोरेशन के कर्मचारी उपस्थिति बनाने के बाद दिनभर परिसर के अंदर या बाहर समय गुजारते दिखते हैं, लेकिन मीडिया से बातचीत करने पर रोक है। एक कर्मचारी ने बताया कि सत्तारूढ़ दल के एक नेता को बीच में ज्यादा काम मिल रहा था, इस बार कुछ अंदरूनी खींचतान के कारण परेशानी आ रही है। काफी कुरेदने के बाद उसका नाम सामने भी आया तो उसने इतना ही कहा कि उनके पास किताबों की पैकेजिंग कर पहुंचाने भर की जिम्मेदारी थी। लगभग सौ प्रिंटर्स के पास काम बांटा जाता रहा है, इसलिए समन्वय की कमी से यह देरी हो सकती है। अब उन्हें काम नहीं मिलता है, इसलिए इसपर औपचारिक बयान देने के लिए भी वह बाध्य नहीं हैं।

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