हमारे यहां योग विद्या में ध्यान के महत्व को सदियों पहले ही समझा जा चुका था। अब पश्चिमी मनोवैज्ञानिक व न्यूरॉलॉजिस्ट भी इस तथ्य को मान रहे हैं कि ध्यान न केवल मनस्थिति को बेहतर बनाता है, बल्कि दिमाग की संरचना भी बदलता है। 1970 में जब अमेरिका के मनोवैज्ञानिक रिचर्ड डेविडसन ने कहा कि वह ध्यान की ताकत पर शोध करना चाहते हैं तो उन्हें हंसी में टाल दिया गया। उन्हें यहां तक कहा गया कि एक विज्ञानी के तौर पर करियर शुरुआत करने का यह बिलकुल अच्छा तरीका नहीं है। लेकिन इसी शोध ने आज उन्हें दुनिया भर में नाम दिया है। अमेरिका की विसकॉन्सिन यूनिवर्सिटी में डेविडसन ध्यान और उसके प्रभावों पर शोध कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने एक टीवी से बातचीत में कहा कि ध्यान के कारण न केवल सहानुभूति, दया, प्रेम, शांति, करुणा के भाव पैदा होते हैं बल्कि इससे दिमाग की संरचना में भी बदलाव आ जाता है। उन्होंने ऐसे बौद्ध भिक्षुओं के मस्तिष्क की जांच की जिन्होंने 10 हजार घंटे ध्यान किया और उन लोगों का भी जो ध्यान में नौसिखिए हैं।
जांच में सामने आया कि ध्यान करने वाले बौद्ध भिक्षुओं के मस्तिष्क की संरचना बदल गई, कोशिकाओं में बदलाव आया। इस कारण उनके अंत:स्रावी तंत्र पर असर पड़ता है। शोध में सामने आया कि लंबे समय ध्यान करने वाले लोग ज्यादा खुश रहते हैं और उन्हें अपने आप तनाव से मुक्ति मिल जाती है।
1992 में तिब्बत के धर्म गुरू दलाई लामा ने डेविडसन से कहा कि अवसाद, व्यग्रता, डर के कारण ढूंढने की बजाए वह विज्ञान का उपयोग खुशी, करुणा, सहानुभूति के कारण ढूंढने में करें। न्यूयॉर्क टाइम्स से बातचीत में डेवडिसन ने कहा कि वह बातचीत मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। एक ऐसी चर्चा जिसने मेरे जीवन की राह बदल दी। फिलहाल डॉक्टर डेविडसन विस्कॉन्सिन मेडिसिन संस्थान में हैं और उन्होंने वहां मस्तिष्क के व्यव्हार पर जांच करने के लिए संस्थान भी शुरू किया है, साथ ही स्वस्थ दिमाग की जांच भी। भारत, तिब्बत में जारी ध्यान की अलग अलग विधाओं को उन्होंने एक वैज्ञानिक आधार दिया है। यह साबित किया है कि ध्यान के जरिए मानसिक असंतुलन के साथ ही मनौवैज्ञानिक बीमारियों का इलाज मिल सकता है और मनुष्य खुश बन जाता है।
ऋ षि पतंजलि के अनुसार ध्यान मूलत: दो वस्तुओं की एकता का प्रतीक है। हालांकि कोई भी बुद्धिवादी व्यक्ति प्रश्न कर सकता है कि मेल सदैव एक-सी वस्तुओं में ही हो सकता है। जैसे जल का जल से मेल। ऑक्सीजन गैस ऑक्सीजन गैस से मिला देने पर ही ऑक्सीजन बना रह सकती है। कार्बन से संयोग हो जायेगा तो अविलम्ब एक नये तत्व की रचना हो जायेगी। फिर न ऑक्सीजन रहेगी न कार्बन वरन कार्बनडाई ऑक्साइड की रचना हो जाएगी। भारतीय योगी समान्य मानवी बुद्धि के इस तर्कबोध से भलीभांति अवगत थे। महर्षि वशिष्ठ योग वशिष्ठ में इस शंका का वैज्ञानिक समाधान करते हैं। वे जब श्रीराम को सावित्री योग का ध्यान सिखा रहे थे, तब यही प्रश्न श्रीराम ने भी उनसे किया था-
न सम्भवति सम्बन्धो विषमाणाँ निरन्तर:
न परस्पर सम्बन्धाद्विनानुभवनं मिथि:?
-(योग वशिष्ठ 3।121।37)
अर्थात जिस प्रकार असमान वस्तुओं में कभी सम्बन्ध नहीं हो सकता, उसी प्रकार जब तक उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता तब तक उस वस्तु से सम्बन्ध कैसे हो सकता है?
उनकी इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि वशिष्ठ ने जो कुछ कहा, वह आज के विज्ञान के विद्यार्थी की जिज्ञासा से शत-प्रतिशत मेल खाता है। उन्होंने कहा- राम यह ठीक है कि सजातीय पदार्थ ही एकता को प्राप्त हो सकते हैं किन्तु दृष्टा को वस्तुएं इसलिये दिखाई देती हैं क्योंकि दृष्टा, दर्शन और दृष्टि सभी चेतन हैं। विश्व के सभी पदार्थों में यह चेतना ही बोध वा अनुभव रूप में विद्यमान है। बोध ही सब ओर फैला हुआ है जैसे कि हवा के झोंके भी हवा और समुद्र जल ही जल है, उसी तरह सृष्टि के कण-कण में चेतना ही खेल रही है।
शिकागो के टेड सीरियस कोई भारतीय योगी नहीं थे; न ही ध्यान विज्ञान पर उनका कोई शोध-अध्ययन ही था; किन्तु आश्चर्यजनक तथ्य है कि टेड सीरियस जब अपने सामने कैमरा रखकर मन को जिस भी वस्तु पर केन्द्रित कर सम्पूर्ण एकाग्रता से ध्यान करते थे तो कैमरे के लेन्स के सामने टेड की ध्यान मुद्रा की वाह्य आकृति के स्थान पर उनकी मानसिक कल्पना का चित्र उभर आता था। मिसाल के तौर पर टेड ने यदि किसी घोड़े पर अपना ध्यान लगाया तो कैमरे के लेन्स में टेड की फोटो की जगह घोड़े का चित्र उभरा जबकि कैमरे के सामने टेड सीरियस बैठा था।
भारतीय मनीषियों के मुताबिक टेड के साथ घटित ध्यान धारणा की यह घटना न तो हिप्नोटिज्म की श्रेणी में आती है, न ही यह फोटोग्राफी की कोई ट्रिक है। वरन ऐसा होना साधक की ध्यान की गहन स्थिति में एकाग्र होने का प्रतिफलन है। ध्यान वस्तुत: भारतीय दर्शन का गम्भीरतम विज्ञान है। इसी गूढ़ ध्यान धारणा के बल पर पुरा भारतीय मनीषी एक ही स्थान पर बैठे बैठे न केवल मीलों दूर रहने वाले लोगों के मन की बात जान लेते थे, वरन दूर-दर्शन, दूर-श्रवण से उन्हें आशीर्वाद व स्वास्थ्य लाभ भी दे देते थे। वे ईशत्व, वशित्व आदि सिद्धियों का अर्जन इसी ध्यान की प्रक्रिया से ही किया करते थे। भारतीय योगी इस गहन ध्यान धारणा के बलबूते अपनी लघुतम चेतना को सृष्टि की किसी भी प्रचण्ड प्रक्रिया के साथ संयुक्त करके विभिन्न विलक्षण परिणाम उपस्थित कर सकने में समर्थ थे। वैदिक ऋषि इस ध्यान धारणा के अनूठे विज्ञान के बल पर स्वयं को विराट ईश्वरीय चेतना में घुलाकर परमानन्द और मोक्ष के महानतम लाभ प्राप्त किया करते थे।
इस विलक्षण भारतीय ध्यान पद्धति के प्रति जो उपेक्षा आज शिक्षित भारतीयों में देखने को मिलती है; वैसी ही उपेक्षा प्रारम्भ में टेड सीरियस के साथ भी बरती गयी थी। उसे भ्रामक और हिप्नोटिज्म करने वाला कहा जाता रहा, पर जब सन् 1963 में अनेक वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों, बुद्धिजीवियों तथा इलिनाइस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च (यह संस्थान अमेरिका में मनोविज्ञान तथा अति मानवीय चेतना सम्बन्धी शोध करती है) की उपाध्यक्ष श्रीमती पालिन ओहलर की उपस्थिति में कई प्रतिबन्धों, फिल्मों पर नियन्त्रण दूसरे-दूसरे के कैमरों के प्रयोगों द्वारा भी टेड सीरियस ने कल्पना के चित्र खींच दिखाये तो सारे योरोप में तहलका मच गया।
उनके इस प्रयोग से वैज्ञानिकों को भारी आश्चर्य हुआ कारण कि सामान्य वैज्ञनिक प्रक्रिया के तहत दूरवर्ती वस्तुओं के फोटो लेना केवल माइक्रो-फिल्म द्वारा ही सम्भव होता है और वह भी तब जबकि उस तरह का दृश्य किसी निश्चित फ्रीक्वेन्सी पर निश्चित माइक्रो-ट्रांसमीटर द्वारा शक्तिशाली विद्युत-तरंगों द्वारा प्रेक्षित किया गया हो। बिना किसी यन्त्र और माइक्रो-तरंगों के केवल मस्तिष्क की वैचारिक शक्ति के द्वारा किसी भी वस्तु या स्थान का चित्र कैमरे में उतार देना वाकई किसी चमत्कार से कम नहीं था। टेड के इस प्रयोग ने सारे समूचे विज्ञान वर्ग को कौतूहल में डाल दिया; हालांकि उसका कोई सिद्धान्त वे लोग निश्चित नहीं कर पाये।
1962 में ही टेड सीरियस को भारतवर्ष का नक्शा देखने को मिला था। आमतौर पर किसी नक्शे से सिर्फ भौगोलिक सीमाओं का अनुमान तो किया जा सकता है; मगर किस स्थान पर क्या हो रहा है कैसे लोग रहते हैं, कौन सी इमारत खड़ी है, कितने वृक्ष, बगीचे, तालाब आदि हैं, इन सबकी कोई स्पष्ट जानकारी मानचित्र से नहीं हो सकती। उस समय अन्य देशों के समान टेड सीरियस से भारत के भी कुछ प्रसिद्ध स्थानों के कल्पना चित्र उतारने को कहा गया।
टेड सीरियस ने फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और दिल्ली के लाल किले के दीवाने आम के दो मानसिक चित्र खींचे। बाद में अध्ययन करके यह पाया गया कि वे कल्पना-चित्र फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और लाल किले के दीवाने आम की बिलकुल हम-शक्ल थे। नवम्बर 1968 की मासिक कादम्बिनी में टेड सीरियस के उन चित्रों का सही चित्रों से तुलनात्मक सामुख्य कराया गया था। उसे देखकर कोई भी आश्चर्य किये बिना न रहा कि अमेरिका में बैठे किसी व्यक्ति ने हिन्दुस्तान के ऐसे स्थान के हूबहू फोटो कैसे खींच दिये, जबकि इस तरह के किन्हीं स्थानों का उसे कोई पूर्व परिचय भी नहीं था।
हालांकि भारतीय योग तत्ववेत्ताओं की दृष्टि में यह कोई चमत्कार नहीं अपितु मानसिक एकाग्रता की उच्चतम अवस्था है। महर्षि पतंजलि के योगदर्शन में उल्लेख है कि जिस प्रकार कोई नदी जब समुद्र में मिलती है तो कुछ दूर उसका प्रवाह अलग-सा प्रतीत होता है किन्तु थोड़ी ही देर में नदी का अस्तित्व समुद्र में इस तरह विलीन हो जाता है कि उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का कुछ भान ही नहीं होता। ठीक उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु या देश का ध्यान करता है तो ध्येय के अवलम्ब के ज्ञान में ध्यान करले वाले के चित्त का लय हो जाता है अर्थात दोनों की अनुभूतियां एक हो जाती हैं।
ऐसा स्थिति में पृथक होते हुए भी एकत्व का ज्ञान ही उन सब सिद्धियों का कारण है जो ध्यान-योग से प्राप्त होती हैं। एक की मानसिक चेतना प्रवाहित होकर दूसरे का मानसिक चेतना में विलय कर देने का नाम ही ध्यान है और सिद्धियां उसकी विभिन्न विधाएं हैं। यह विलय की पद्धति जितनी अधिक एकाग्र होगी, तन्मयता जितनी बढ़ेगी, सादृश्यता का ज्ञान उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा।