पूनम नेगी
आज हम दुनिया की सर्वाधिक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था हैं। अत्याधुनिक तकनीकों ने हमारे जीवन को अत्यन्त सुविधापूर्ण व आरामदायक बनाया है। टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल क्रांति ने हमारी समूची दुनिया बदल कर रख दी है। चिकित्सा, शिक्षा व परिवहन के क्षेत्र में उन्नत तकनीक ने सफलताओं के ऐसे आयाम गढ़े हैं जिनकी कल्पना भी हमारे पूर्वजों ने न की थी। मगर, दूसरी ओर एक कड़वा यर्थाथ यह भी है कि हमारा देश विश्व का सातवां सबसे प्रदूषित देश है। देश के पर्यावरण की बदहाली हमारी एकांगी, उदासीन व स्वार्थपूर्ण नीतियों का नतीजा है।
यह सच है कि हमारे शहरों की चमक-दमक जिस तेज गति से बढ़ी है; जहरीले कचरे के ढेर भी उससे ज्यादा गति से ऊंचे होते जा रहे हैं। ओजोन गैस की परत में गहरे सुराख होने लगे हैं। मेट्रो शहरों में वायु की शुद्धता का स्तर निरंतर खराब होता जा रहा है। वायुमण्डल में बढ़ता धुआं जहां एक ओर मानवी स्वास्थ्य को क्षीण कर रहा है, वहीं इससे प्राकृतिक संतुलन भी बिगड़ रहा है। सर्वेक्षणों के अनुसार प्रदूषण फैलाने में औद्योगिक इकाईयां सबसे आगे हैं। चिमनियों से निकलने वाले धुएं में मौजूद रेडियोधर्मी तत्व, सल्फर डाई आक्साइड, नाइट्रस आक्साइड आदि जहरीली गैसें सीधे हमारे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालती हैं और अनेकानेक शारीरिक व मानसिक बीमारियां पैदा करती हैं। भूमिगत जल का स्तर पाताल के नीचे चला गया है। मिट्टी दूषित होने से हमारे खाद्य पदार्थ विषाक्त बनते जा रहे हैं।
औद्योगिक कचरे, रासायनिक स्रावों और मानव मल-मूत्र ने गंगा जैसी पवित्र नदियों को गंदगी से पाट दिया है। वनस्पति और जीव-जंतुओं की हजारों जातियां लुप्त हो गई हैं। आसमान में पक्षी कम दिखाई देते हैं। हवा में उड़ते प्रदूषकों ने जन-जीवन को बेतरह दुष्प्रभावित किया है। डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि विश्व में 8 करोड़ लोग प्रतिवर्ष वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु के शिकार होते हैं तथा वायु प्रदूषण भारत में मृत्यु का पांचवां बड़ा कारण है। श्वसन और परिसंचरण तंत्र संबंधी बीमारियों का खतरा आज कई गुना बढ़ गया है। दमा, एलर्जी और जुकाम अब वर्ष भर चलने वाली बीमारी बन गए हैं। फेफड़ों के कैंसर का खतरा भी बीते कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। बड़ी संख्या में लोगों को मधुमेह, हृदययरोग, कैंसर, मोटापा, उच्च रक्तचाप जैसे भयानक रोगों की चपेट में ले रखा है। हमारे वस्त्र, वाहन और जूते चमकीले हैं लेकिन चेहरे नि:स्तेज।
काउंसिल ऑफ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी (लखनऊ) की ज्वाइंट डायरेक्टर व वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. शशि राणा के अनुसार वायुमण्डल में बढ़ती विषाक्तता केवल मानवी स्वास्थ्य पर ही नहीं, वरन वनस्पतियों पर भी बुरा प्रभाव डाल रही है। औद्योगिक संयत्र जो धुआं निकालते हैं, उनका केवल समीपवर्ती क्षेत्रों पर ही बुरा असर नहीं पड़ता बल्कि दो सौ मील की दूरी तक इनकी विषाक्तता का असर रहता है। ब्रांकाइटिस, खांसी, दमा, टीबी आदि रोगों की बहुतायत इसी का नतीजा है। वर्षा के साथ इन गैसों का जहरीला अंश धरती पर पहुंच कर घास व फसलों में भी समा जाता है। इस घास को खाने में पशुओं में भी तमाम बीमारियां लग जाती हैं। साथ ही इनका दूध पीने वाले व मांस खाने वाले भी रोगों की गिरफ्त में आ सकते हैं। डा. राणा के अनुसार वायुमण्डल में मौजूद विषाक्त तत्वों की उपस्थिति खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। डीजल के धुएं में मौजूद नाइट्रोजन बेंजामीन नामक यौगिक इतना खतरनाक है कि यह हमारे डीएनए को तोड़ कर गम्भीर जैनेटिक रोग पैदा कर देता है।
पर्यावरण विशेषज्ञों की मानें तो धरती पर प्राकृतिक तत्वों के असंतुलन की शुरुआत अठारहवीं सदी के उतरार्द्ध व उन्नीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में पनपी इस भौतिकतावादी विचारधारा से हुई कि जड़ के साथ जड़ जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। इस भोंडे तत्वदर्शन ने दोहन और शोषण को जन्म दिया।
पृथ्वी का जिस निर्दयता से दोहन चल पड़ा है, उससे उसके प्रकोप में बढ़ोतरी हुई है। विशेषज्ञ बताते हैं कि आज से सौ वर्ष पूर्व भूकम्पों और ज्वालामुखी विस्फोटों की विभीषिका इतनी विकराल नहीं थी, जितनी अब देखी जा रही है। प्रदूषण के भयावह खतरे हम सबके सामने हैं। राजधानी दिल्ली में जहां वायु प्रदूषण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, वहीं उत्तर व मध्य भारत के कई शहर इस मामले में दिल्ली को भी पीछे छोड़ रहे हैं।
प्लास्टिक प्रदूषण का खात्मा है इस बार का नारा
इस बार संयुक्त राष्ट्र ने विश्व पर्यावरण दिवस का नारा दिया है - ‘बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन।’ चूंकि पर्यावरण के लिये प्लास्टिक सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है सो प्लास्टिक के कम से कम इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है।
सबसे प्रदूषित शहर बनने की होड़
दिल्ली आज दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। वैसे भी दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में भारत के 13 शामिल हैं। डीजल,पेट्रोल और केरोसिन से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पम्पों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है। अफसोसजनक तथ्य है कि हमारे देश में कई तरह के कड़े कानूनों के बावजूद कूड़े का करीब 40 फीसदी से ज्यादा जलाया जाता है। चीन और हिन्दुस्तान में यह आदत सबसे ज्यादा है। इस कारण ये दोनों ही देश आज भयंकर प्रदूषण की चपेट में हैं। जलते कूड़े से कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें निकलती हैं।
चिन्तनीय यह भी है कि हिंदुस्तान में प्लास्टिक की बोतलों, टायर और इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान समेत हर तरह का कचरा जला दिया जाता है जिसके चलते हवा की गुणवत्ता को खत्म करने वाले और भी कई तरह के टॉक्सिन इस धुएं के जहर में शामिल होते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि महानगर से निकले ठोस कचरे को जलाना पर्यावरण और इंसानी स्वास्थ्य के लिये बेहद घातक है। इसके कारण हवा में हानिकारक पार्टीकुलेट मैटर (पीएम) की मात्रा बढ़ जाती है। हवा में मौजूद ऐसे कण सांस के जरिए इंसानों के शरीर में पहुंचकर सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं।
क्या हो रहा है विश्व में
ग्लोबल वार्मिंग और डेंगू में है रिश्ता : एक शोध में पता चला है कि क्लाइमेट चेंज पर यदि काम किया जाये तो डेंगू के लाखों मामलों से बचा जा सकता है। अगर ग्लोबल वार्मिंग डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दी जाये तो सिर्फ कैरिबियन और लैटिन अमेरिका में हर साल डेंगू के ३३ लाख मामले टाले जा सकते हैं। इन इलाकों में हर साल डेंगू के कोई साढ़े पांच करोड़ केस होते हैं। विश्व भर में ये आंकड़ा ३९ करोड़ का है। जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है उसके हिसाब से २०५० तक डेंगू के ७५ लाख मामले और बढ़ जायेंगे।
यूके में बनेंगे नए नेशनल पार्क : युनाइटेड किंग्डम में सरकार अब नए नेशनल पार्क बनाने पर विचार कर रही है। इसकी जरूरत इसलिये आ पड़ी है क्योंकि इनसानी आबादी बढ़ती जा रही है और प्राकृतिक जंगल आदि घटते जा रहे हैं। देश में इस वक्त १० नेशनल पार्क हैं और अब इनकी संख्या बढ़ाई जायेगी।
कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर से चावल हो रहा बेकार : एक अंतरराष्ट्रीय शोध में पता चला है कि वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड के बढ़ते स्तर के कारण चावल के पारंपरिक पोषक तत्व खत्म होते जा रहे हैं। वर्तमान स्थिति के कारण चावल में मौजूद चार आवश्यक बी विटामिन का स्तर पहले के अनुपात में घटता जा रहा है। इसके अलावा चावल में प्रोटीन, आयरन और जि़ंक का स्तर भी घट गया है।
समुद्र में सबसे सुदूर जगह भी पहुंच गया प्लास्टिक कचरा : पृथ्वी पर समंदरों में सबसे रिमोट जगह है प्वाइंट नीमो। इस जगह के सबसे करीब द्वीप भी १७०० मील दूर है। लेकिन इतना सुदूर होने के बावजूद प्वाइंट नीमो पर भी प्लास्टि कचरा पहुंच गया है। प्वाइंट नीमो के पास से लिये पानी के सैंपल में माइक्रो प्लास्टिक कण पाये गये हैं।
कचरा निस्तारण की कोई व्यववस्था नहीं
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक देश में आज भी कचरा निस्तारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। देश के अधिकांश शहर आज कचरे के ढेर पर बैठे हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष 4.2 मिलियन टन कूड़े का उत्पादन होता है। हवा में फैल रही जानलेवा जहरीली गैसों का मुख्य कारण इन कचरे के ढेरों को आग के हवाले करना भी है। पश्चिमी देशों ने कचरे के ढेर जमा करने के बजाय उसे रिसाइकल करने के मामले में काफी तरक्की की है जबकि हमारा देश अभी बहुत पीछे है। ‘नेचर’ जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वायु प्रदूषण को रोकने हेतु अगर कारगर उपाय नहीं किये गए तो वर्ष 2050 तक हर बरस तकरीबन 66 लाख लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो सकते हैं।
हमारे पास है अनूठी पाठशाला
प्रकृति को सुरक्षित रखने की यह तकनीक हमें कहीं बाहर से सीखने की जरूरत नहीं है। हमारा समूचा वैदिक वांग्मय पर्यावरण संरक्षण की अनूठी पाठशाला है। वेदकालीन महर्षिगणों ने आवश्यकता एवं महत्ता को ध्यान में रखकर पर्यावरण को शुद्ध एवं संरक्षित रखने हेतु जो विभिन्न नियम व उपनियम बनाये थे, वे आज भी उतने ही कारगर हैं। वैदिक दर्शन के अनुसार सृष्टि के पंचमहाभूत अर्थात अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश; मिलकर समूचे विश्व ब्रह्मांड के जड़ चेतन जीवों का निर्माण और पोषण करते हैं। इन पांच तत्वों का संतुलन ही जीवनचक्र को नियंत्रित करता है और इसमें गतिरोध आते ही जीवन संकट में पड़ जाता है।
वैदिक युग में पर्यावरण के परिष्कार के लिए यज्ञ-हवन संपन्न किए जाते थे। ‘पृथ्वी सूक्त’ में अथर्वण ऋषि धरा की महानता, उदारता, सर्वव्यापकता आदि अनंत गुणों पर विस्मय-विमुग्ध हो खनन से पूर्व धरती माता से प्रार्थना करते हैं कि हे मां, जीविकोपार्जन के लिए हम ऐसा करने को बाध्य हैं, किन्तु हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह तुम्हें पुन: हरा-भरा कर दे। हम भूमि के जिस स्थान पर खनन करें, वहां शीघ्र ही हरियाली छा जाए।
अब भी बदल सकते हैं हालात
यदि हम सब मिलकर अपनी धरती माता को पुनर्जीवन देने का संकल्प कर लें तो आज भी सुधार हो सकता है। प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करते समय यही नीति अपनाने की आज नितांत आवश्यकता है। हमारे देश में अद्वैत का विचार आदिकाल से बहुत प्रबल रहा है। जिसका आशय है सभी दूर एक ही तत्व विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ है। वस्तुत: दूसरा कोई है ही नहीं। आज का विज्ञान अब इसी ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। सैकड़ों वर्ष पहले हमारे यहां हितोपदेश में कहा गया था- ‘आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित:’ अर्थात जो अपने समान ही सभी प्राणियों और पदार्थों को देखता है, वही ज्ञानी और समझदार है।
आधुनिक पर्यावरण चिंतक भी अब ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय अवधारणा को स्वीकार कर हम मनुष्यों को अपने लालच पर लगाम लगाने की हिदायत दे रहे हैं। इसके तीन मूल सूत्र हैं- 1. सादगी से रहना 2. उपभोग कम करना तथा 3. बेकार वस्तुओं की रीसाइकलिंग कर उनका पुन: उपयोग।