आधुनिकता के इस समय में आल्हा के मंद होते स्वर...

1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक सैन्य-छावनियों में आल्हा गायन द्वारा सैनिकों को प्रेरित किया गया। बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में वीरगाथा काव्य आल्हा गायन की परम्परा सदियों से चली आ रही है। लेकिन आधुनिकता के दौर में वीर गाथा काव्य के स्वर खामोश होते नजर आ रहे हैं।

Update:2017-07-22 14:04 IST

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

लखनऊ: 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक सैन्य-छावनियों में आल्हा गायन द्वारा सैनिकों को प्रेरित किया गया। बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में वीरगाथा काव्य आल्हा गायन की परम्परा सदियों से चली आ रही है। लेकिन आधुनिकता के दौर में वीर गाथा काव्य के स्वर खामोश होते नजर आ रहे हैं।

बुन्देलखण्ड में रिमझिम के तराने लेकर सावन तो अब भी हर साल आता है, लेकिन अब सावन हाईटेक हो चुका है। नए जमाने के सावन में पुराने सावन की बहुत सी बातें यादगार बन गई हैं। इन्हीं में से एक है आल्हा गायन। बात ज्यादा पुरानी नहीं है।

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जब दूरदर्शन अपने शैशव कला में था तब शहरी बस्तियों में भी आल्हा के स्वर गूंजते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में तो ढोलक की थाप के साथ रात-रात भर आल्हा गायन होता था। महाकवि जगनिक रचित आल्हाखंड वीर गाथा काल का एक ऐसा महाकाव्य रहा है जिसने बुन्देलखण्ड की धरती को बहुत प्रभावित किया है।

लोक में प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहां जगनिक नाम से एक-एक भाट थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों, आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीर चरित्र का विस्तृत वर्णन एक वीर गीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी तर्ज पर अवध से लेकर पंजाब तक वीरगीतों का प्रचार और गायन की परम्परा शुरू हो गयी। जगनिक के काव्य को हिन्दी जगत को उपलब्ध कराने का श्रेय ग्रियर्सन को जाता है।

लोक काव्य आल्हा के नाम से प्रसिद्ध है। बरसात की रिमझिम झड़ी में पूरे बुन्देलखण्ड में गाये जाते थे। गांवों में ही नहीं अपितु शहर में भी मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देता था-

बारह बरस लौं कूकर जीयें, और सोरह लौं जियेें सियार,

बरस अठारा क्षत्रिय जीवे, आगे जीवन को धिक्कार।

महोबा निवासी आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और नाफर शाखा के क्षत्रिय थे। जगनीक के आल्हा गीतों का एक संग्रह आल्हाखंड के नाम से छपा है। अंग्रेज चाल्र्स इलियट ने पहले पहल इन गीतों का संग्रह करके छपवाया था। लोक कंठ और लोक मुख में जीवित रहा सदियों से आल्हा ने पूरे देश में शौर्य का नया पाठ पढ़ाया। क्षेत्रियता की सीमाओं को लाघ कर पूरे देश में अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुआ। आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरुआत मांडी की लड़ाई से है। मांडी के राजा करिंगा ने आल्हा-उदल के पिता जच्छराज बच्छराज को मरवा के उनकी खोपडिय़ां कोल्हू में पिरवा दी थी।

उदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया। तब उनकी उमर मात्र 12 वर्ष थी। युद्ध की थीम पर रचे आल्हाखंड में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है-

 

मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला, उदल कहैं पुकार-पुकार।

नौकर चाकर तुम नाहीं हौ, तुम सब भैया लगौ हमार।

भाग न जइयो कोऊ समूहतें, यारों रखियों धर्म हमार।

आल्हा की सभी कथाओं में अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है। जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार। इसी का अनुसरण करते हुये तमाम बुन्देलखण्ड के बागी बीहड़ इलाकों में अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिये उतर गये। बागियों (डकैतों) ने आल्हा की पंक्तियों को दोहराते हुए नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा। बुन्देलखण्ड में कन्या के बजाय पुत्र को प्राथमिकता दिलाने में भी आल्हा का बहुत हाथ रहा है। आल्हा की कथाओं के अनुसार कन्या के पिता को अक्सर नीचा देखना पड़ता था। जवान कन्या का डोला उठवा लिया जाता था। आल्हा खण्ड के बावनगढ़ की लड़ाइयों में कन्याओं के डोले उठवा लेने यानी उन्हें किडनेप कर लेने की वीरगाथाएं भरी पड़ी है। पुत्र के लिए आल्हा में कहा गया है-

जिनके लरिका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाहा!

यह वीर लोक काव्य समस्त कमजोरियों के बावजूद जन सामान्य को नीति और कर्तव्य का पाठ सिखाता था। बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा जमता था। कहा जाता था-

भरी दुपहरी सरवन गाइये, सोरठ गाइये आधी रात।

आल्हा पवाड़ा वादिन गाइये, जा दिन झड़ी लगे दिन रात।

स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना आल्हा में सहज गुण बताये जाते-

जहां पसीना गिरै तुम्हारा, तंह दै देऊं रक्त की धार।

आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना भी कई जगह बखाना जाता था। एक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल को बहुत पिटाई की-

हरे बांस आल्हा मंगवाये और उदल को मारन लाग।

ऊदल चुपचाप मार खाते रहे, बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा,

हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आय,

कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।

आल्हा मेंं वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है। तभी जगनिक ने अतिशयोक्ति के अंदाज मेंं कहा है,

भैंस बियानी गढ़ महोबे में पड़वा गिरा कनौजै जाय।

आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते थे। जगनिक स्वाभिमानी तथा स्वभाव का अडिय़ल भी था। जब जगनिक आल्हा-ऊदल को मनाने कन्नौज गया, तब कन्नौज नगर में परम चक्रवर्ती राजा बेनी के नाती लाखन की सवारी निकल रही थी। लाखन के सारथी ने जगनिक के ‘हरनागर’ घोड़े को ‘टटुआ’ कहकर अन्य कहीं से निकालने का परामर्श दिया, किंतु जगनिक अड़ गया तथा राजकुमार के हाथी को ‘पडिय़ा’ कहकर दूसरी जगह से घुमाने का परामर्श दे दिया।

जगनिक बोले तब धनुवां सें, कट्टर घोड़ा सोई हमार।

घोड़ा हटी न अब आगे से, पडिय़ा अंतै से ले घुमाव।

आल्हा एक ऐसा लोक महाकाव्य है जो लगभग 800 वर्षों से जनजन में गांव की चौपालों से लेकर शहरों के बीच देश प्रेम जगाता चला आ रहा है। लेकिन आधुनिकता की दौर में आल्हा के स्वर मंद न पड़ जाये इस दिशा में विशेष कदम उठाने की आवश्यकता है।

सदा न तुरैया फूले यारो, सदा न सावन होय।

स्वर्ग मडैया सब काहू कों, यारों सदा न जीवे कोय।

बुंदेलखंड के प्रसिद्ध आल्हा गायक स्वर्गीय शिवराम सिंह नाना के पुत्र भी लोक गायकी आल्हा पर मंडराते संकट सें चितित हैं। आल्हा गायक बाबा रमाशंकर बकरई, वंशगोपाल यादव पचपहरा, चंद्रभान सिंह, आल्हा सम्राट बच्चा सिंह, चरन सिंह तमौरा, अनिरुद्ध सिंह, रामनारायण सिंह, अर्पित सिंह, रोहित, अशोक कुमार, प्रभुदयाल, ब्रजेश कुमार, प्रेम नारायण सहित 29 गायन विधा से जुड़े कलाकारों और मजीरा वादन विधा के लिए सुखदेव सिंह बिदावर, कल्लू सिंह, महेश सिंह, भवानी सिंह, जयहिंद, जयसिंह, रामकुमार, महेश, शिव सिंह, रामबली, रघुवीर आदि लोक गायकी आल्हा को जिन्दा रखने की कोशिश कर रहे हैं।

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