गज़ल : हम अकेले थे अगर ये परछाँइयाँ नहीं होतीं, हम कहाँ जाते...

Update: 2017-10-06 11:06 GMT

सुधांशु उपाध्याय

हम अकेले थे अगर ये परछाँइयाँ नहीं होतीं

हम कहाँ जाते अगर ये तनहाइयाँ नहीं होतीं,

कई आँगन में कटते हैं कबूतर रोज दिखता है

हरेक घर में तो मासूम अँगनाइयाँ नहीं होतीं,

कभी बबूल के साए भी कुछ सुकून देते हैंं

अब हर जगह तो घनी अमराइयाँ नहीं होतीं,

फिसलने वाले तो फिसल वहाँ भी जाते हैं

जहाँ पर काइयाँ या चिकनाइयाँ नहीं होतीं,

बड़े घरों के ये बच्चे न जाने कैसे पल पाते

पगार वाली जो कहीं ये दाइयाँ नहीं होतीं,

माना कि बहुत कम हैं मगर तब क्या होता

बची-खुची अगर ये भी अच्छाइयाँ नहीं होतीं,

सचाई का अकेलापन बनाता खास है उसको

गोलबंदी, भीड़भाड़ में सच्चाइयाँ नहीं होतीं,

एक बच्चे के लिए घर वो पूरा घर नहीं बनता

जहाँ पर चाचियाँ, ताइयाँ, भौजाइयाँ नहीं होतीं।।

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