एक तरफ हिंदी को मां कहते हैं दूसरी तरफ धाराप्रवाह अंग्रेजी न बोल पाने में हीनता महसूस करते हैं। ईमानदारी से, बेहिचक, निसंकोच स्वीकारना होगा वैश्विकरण के दौर में दुनिया भर में व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी से हम अछूते नहीं रह सकते। यह वास्तविकता है जिसे नकारा या झुठलाया नही जा सकता।
समस्या तो तब होती है जब विदेशी भाषा जो हमारी व्यवसायिक आवश्यकता है को स्टेट्स सिम्बल मान लेते है और अंग्रेजी न जानने वालों को अज्ञानी। दु:ख तब होता है जब हिंदी की कमाई खाने वाले बॉलीवुड कलाकार भी सार्वजनिक मंचों या निजी जीवन में हिंदी से परहेज़ करते है। हमारे नेताओं को चुनाव के वक्त यदि देहातों की पगडंडियाँ न नापनी होती तो शायद इस तबके ने भी हिंदी से दूरी बना ली होती।
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क्या हिंदी प्रेमचंद्र, निराला, मुक्तिबोध, महादेवी जैसी संतानों का दौर दुबारा नही देख पाएगी? मुझे ऐसा कतई नही लगता कि हरिवंशराय बच्चन, सुमित्रानंदन पंत जैसी रचनाशीलता से हिंदूस्तान की रत्नगर्भा धरती बंजर हो चुकी है या यह हिंदी पाठकों की समाप्ति का दौर है। हिंदी के नाम पर आज भी कर्मभूमि, गुनाहों का देवता, मधुशाला या थ्री मिस्टेक आफ माय लाइफ के हिंदी संस्करण ही लटकते हैं?
क्या युवा पीढ़ी ने हिंदी लेखन या पठन छोड़ दिया है? यदि गंभीरता से मुआयना करेंगे तो मुझे कुछ दूसरे सूक्ष्म कारण नजऱ आते है। हो सकता है मेरा दृष्टिकोण गलत हो। हाल के कुछ वर्षों में कवि सम्मेलनों की ब्रांड मार्केटिंग, वाकपटुता, कॉमेडी का कविता के साथ मिश्रण, स्टेज़ पर भाव भंगिमाओं के साथ लच्छेदार प्रस्त्तुति ने कवियों को आर्थिक मजबूती तो दी लेकिन स्टेज़ की ऊँचाई की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में शोहरत की खातिर, जनसंपर्क की व्यस्तताओं की रेलम पेल में रचनाओं की रूहानी ताकत कही कमज़ोर पड़ गयी।
व्यवसायिक हितों को साधते साधते कलम से एकांत का अतरंग रिश्ता ढीला पडऩे की उन्हें खबर भी नहीं होती है। अपनी उपलब्धियों का मंच से बखान करते फला ने मुझे सुना, फला जगह मुझे बुलाया गया के होड़ की भूल भुलैया में भटकते, सर्जनशीलता की गलियाँ अनजाने पीछे छोड़ आते है। साहित्य साधना को दिया जाने वाला बहुमूल्य समय आयोजकों से जनसंपर्क में ही
बीत जाता है ७ जब तक कोई रचना पाठक के ह्रदय पटल को सहला, झकझोर, द्रवित, आंदोलित कर न लौटे मेरी नजऱ में असफल है। दूसरा बेहद महत्वपूर्ण तथ्य पिछले कुछ वर्षों में राजभाषा हिंदी के विस्तार के नाम पर कई नए सरकारी पुरस्कारों की घोषणा हुई। सम्मानित साहित्यकारों को एक लाख नगद पुरस्कार से लेकर ५० हज़ार तक की मासिक पेन्शन भी मिलती है। अब यहां मैं बेख़ौफ़ लिख रही हूं कि सम्मानित रचनाकारों के सत्ताधारी दल के सदस्यों से करीबी सम्बन्ध कई बार विवाद के विषय बने।
आज की तारीख में कई हिंदी साहित्यकार या कवि है जो शोहरत या आर्थिक लाभ की अंतहीन भूख में अपनी सारी ऊर्जा आयोजनों में शिरकत करते, राजनैतिक रिश्तों और रास्तों का विस्तार करने में लगा देते है। हिंदी माँह्य के विकास की दुहाई दे बड़े बड़े बैनर तले एक दूसरे को सम्मानित करना, पुरष्कृत करना, सतही रचनाओं की तारीफ़ में वाह वाह करते साहित्यकारों की असीमित व्यवसायिकता देख कोफ़्त होती है। हिंदी दिवस समारोहों के स्टेज़ से भाषा की रक्षा की दुहाई में हाहाकार मचाये चाटुकार रचनाकारों की टोली नामालूम, गूढ़ तरीकों से हिंदी का संरक्षण कर
रही है।
हिंदी बुद्धिजीवियों का एक ऐसा तबका भी है
जिन्होंने आत्ममुग्धता से वशीभूत नई पीढ़ी को मार्गदर्शन देने की जगह अस्वीकृत या बहिष्कृत करने का चलन बना लिया है। मैं भाषा में अशुद्धता की पक्षधर नही हूँ लेकिन परिवर्तनशीलता प्रकृति का नियम है। भाषा क्लिष्ट से क्रमश: सरलता की ढलान की ओर सहज ही बह जाती है। यह पहली बार हुई अनहोनी नही या ऐसा भी नहीं कि हिंदी के साथ अन्याय हो गया। ये अंग्रेजी के साथ भी हुआ है। हेमलेट और हैरी पॉटर की इंग्लिश में जमीन आसमान का अंतर क्रमिक विकास की प्रक्रिया है।
हिंदी साहित्य के इतिहास के भिन्न-भिन्न कालखंडों की भाषा शैली अवधी, बृज, मैथिल से लेकर खड़ी बोली तक सरलता की तरफ उत्तरोत्तर आकर्षण स्पष्ट दिखता है। साहित्य समाज का दर्पण है यह विचार भाषा शैली से भी सम्बंधित है। तदभव शब्दो के समावेश ने भाषा को अशुद्ध नहीं समृद्ध किया है।
नए हिंदी रचनाकारों को व्याकरण की पुरानी डंडी से हाँकने पर या तो वो रास्ता बदल अंग्रेजी लेखन में जाएंगे या परिश्रमी लेखक खुद की शर्तों पर नया भाषा शास्त्र बना पाठक वर्ग भी पैदा कर लेंगे। दरअसल हिंदी के लेखकों ने अपनी प्रकृति को छोड़ दिया है। प्रकृति से ही भाषा उपजती है। अब तक हमारे जितने भी रचनाकार हुए हैं, उनकी लोकप्रियता उनकी उस भाषा के कारण बनी जो उन्होंने प्रकृति के मौलिक स्वरों से पायी थी।
नए लेखक बेफिक्र, बेपरवाह लेकिन मौलिक बने और पारम्पिक पाठक जरा सा धैर्यशील और उदार रहे। नकारात्मक सनसनी वाले प्रयोगवादियों को पाठकों की उदासीनता स्थायी समाप्ति तक पहुंचा देगी। फेसबुक पर बवाल मचाये स्तरहीन लेखकों में हिंदी को प्रतीक्षा है उस बिंदास, निस्वार्थ, चितेरे बेटे की जो अपनी रचनाओं का हरसिंगार बरसा रोम रोम को पुलकित करेगा।
वो हिंदी का फक़ीर, पुजारी जो वातावरण में आयी शून्यता को हिंदी के शंखनाद से गुंजित करेगा, हिंदी के प्रवाह में आये ठहराव को पुन: गतिमान करेगा। हमारी हिंदी के समृद्ध, गौरवशाली इतिहास पर फक्र करने वाले सभी हिंदी भाषियों को १४ सितंबर हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएं।
(लेखिका फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुंबई की सदस्य हैं)