विचार: स्वदेशी अंतरिक्ष तकनीक क्षेत्र में भारत की बढ़ती आत्मनिर्भरता

Update:2017-09-15 16:10 IST

Pramod Bhargav

मनुष्य का जिज्ञासु स्वभाव उसकी प्रकृति का हिस्सा है। मानव की खगोलीय खोजें उपनिषदों से शुरू होकर उपग्रहों तक पहुंची हैं। हमारे पूर्वजों ने शून्य और उडऩ तश्तरियों जैसे विचारों की परिकल्पना की थी। शून्य का विचार ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का केंद्र बिंदु है। बारहवीं सदी के महान खगोलविज्ञानी आर्यभट्ट और उनकी गणितज्ञ बेटी लीलावती के अलावा वराहमिहिर, भास्कराचार्य और यवनाचार्य ब्रह्माण्ड के रहस्यों को खंगालते रहे हैं। इसीलिए हमारे वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रमों के संस्थापक वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और सतीष धवन ने देश के पहले स्वदेशी उपग्रह का नामाकरण आर्यभट्ट के नाम से किया था।

अंतरिक्ष विज्ञान के स्वर्ण-अक्षरों में पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा का नाम भी लिखा गया है। उन्होंने ३ अप्रैल १९८४ को सोवियत भूमि से अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाले यान सीयूज टी-११ में यात्रा की थी। सोवियत संघ और भारत का यह साझा अंतरिक्ष कार्यक्रम था। तय है, इस मुकाम तक लाने में अनेक ऐसे दूरदर्शी वैज्ञानिकों की भूमिका रही है, जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने इस पिछड़े देश को न केवल अंतरिक्ष की अनंत उंचाइयों तक क्रमश: स्वदेशी प्रौद्योगिकी को विकसित करके पहुंचाया, बल्कि अब पिछले तीन सालों में अंतरिक्ष के क्षेत्र में हमारे साथ इतनी उपलब्धियां जुड़ चुकी हैं, कि हम अकूत धन कमाने की दिशा में भी तेजी से अग्रसर हो रहे हैं। ये उपलब्धियां कूटनीति को भी नई दिशा देने का पर्याय बन रही हैं।

भारत ने अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत २१ नवंबर १९६३ को की थी। इस दौर में भारत की विडंबना यह थी कि रॉकेट को साइकिल पर लादकर प्रक्षेपण स्थल तक लाया गया था। नाइक अपाचे नामक इस रॉकेट को अमेरिका से लिया गया था। इसे छोडऩे के लिए नारियल के पेड़ों के बीच लांचिंग पेड़ और तबेले में प्रयोगशाला बनाई गई थी। इसके बाद २० नवंबर १९६७ को भारत में बना पहला रॉकेट रोहिणी-७५ प्रक्षेपित किया गया। इसे देश की रॉकेट क्षमता आंकने के लिए लांच किया गया था। १९ अप्रैल १९७५ को भारत का पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा गया।

१९८१ में छठां उपग्रह एपल छोड़ा गया। भारी होने के कारण इस उपग्रह को पैलोड तक लाने के लिए बैलगाड़ी का इस्तेमाल किया गया था। इस तरह से साइकिल और फिर बैलगाड़ी से शुरू हुआ इसरो का यह सफर अब धु्रवीय यान पीएसएलवी-३७ तक आते-आते विश्व की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गया हैं। ६० के दशक में जो काम महाशक्तियां करती थीं, वही काम भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश ने कर दिखाया है।

गोया, इसे प्रौद्योगिकी के स्वदेशी विकास और उसके अंतरराष्ट्रीय हस्तांतरण के सकारात्मक पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने एक साथ १०४ उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके विश्व इतिहास रच दिया है। दुनिया के किसी एक अंतरिक्ष अभियान में इससे पूर्व इतने उपग्रह एक साथ कभी नहीं छोड़े गए हैं। इस प्रक्षेपण से इसरो की वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में धाक जम गई है।

इसरो का अपना स्वयं का कीर्तिमान एक साथ २० उपग्रह प्रक्षेपित करने का हैं। किंतु २०१६ में किए गए इस अजूबे के बाद यह जो चमत्कार किया है, उससे दुनिया का विज्ञान जगत हैरान हैं। इन उपग्रहों में तीन भारत के थे, शेष अमेरिका, इजराइल, कजाकिस्तान, नीदरलैंड स्विट्जरलैंड, पाकिस्तन और संयुक्त अरब अमीरात के थे। ये सभी उपग्रह आंध्र प्रदेश के श्री हरिकोटा के सतीष धवन अंतरिक्ष केंद्र से धु्रवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान, यानी पोलर सेटेलाइट लांच व्हीकल (पीएसएलबी) से छोड़े गए थे। इसके पहले भारत गूगल और एयरबस के भी उपग्रह भेज चुका था। इस सफलता से भारत की अंतरिक्ष में उपग्रह प्रक्षेपण व्यापार के क्षेत्र में धाक जम गई है। कालांतर में भारत खरबों डॉलर इस व्यापार से कमाएगा। अकेले इस अभियान से इसरो ने करीब एक अरब रुपए कमाए हैं।

दरअसल अंतरिक्ष में प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद छह-सात देशों के पास ही है। लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया के इस तकनीक से महरूम देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम (एंट्रिक्स कार्पोरेशन) के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं है, जो हमारे पीएसएलवी-सी-३७ के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। इसलिए व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। यही वजह है कि अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने उपग्रह छोडऩे का अवसर भारत को दे रहे हैं।

हमारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की दरें अन्य देशों की तुलना में ६० से ६५ प्रतिशत सस्ती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा ने जो रॉकेट ६७ करोड़ डॉलर में भेजा था, उसे इसरो ने मात्र ७.३ करोड़ डॉलर में भेजा था। बावजूद भारत को इस व्यापार में चीन से होड़ करनी पड़ रही हैं। मौजूदा स्थिति में भारत हर साल ५ उपग्रह अभियानों को मंजिल तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। जबकि चीन की क्षमता दो अभियान प्रक्षेपित करने की है। बाबजूद इस प्रतिस्पर्धा को अंतिरक्ष व्यापार के जानकार उसी तरह से देख रहे हैं, जिस तरह की होड़ कभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ में हुआ करती थी। अंतरिक्ष में उड़ान भरने के क्षेत्र में हम अग्रणी इसलिए सिद्ध हो पा रहे हैं, क्योंकि हमारे पास ऐसी स्वदेषी रॉकेट प्रणाली है, जो एक साथ ४०० सूक्ष्म उपग्रह छोडऩे की क्षमता रखती है।

दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरुआत २६ मई १९९९ में हुई थी। तब जर्मन एवं दक्षिण कोरिया के उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-३ ने २२ अक्टूबर २००१ को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे, इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार २२ अप्रैल २००७ को धु्रवीय यान पीएसएलवी सी-८ के मार्फत इटली के एंजाइल उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भी भारतीय उपग्रह एएम भी था, इसलिए इसरो ने इस यात्रा को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया।

दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती है, जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरुआत २१ जनवरी २००८ को हुई, जब पीएसएलवी सी-१० ने इजारइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया। यह कीमत ५ हजार से लेकर २० हजार डॉलर प्रति किलोग्राम पेलोड (उपग्रह का वजन) के हिसाब से ली जाती है। सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है, उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है।

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