इंसानियत तो हिंदुस्तानियों में भी है और फिर अमरीकंस में भी, फिर अंतर क्या?

Update:2017-08-11 16:41 IST

सोनल कुमार

लखनऊ: आंखों में अश्रु थे और मन पे कोई संयम नहीं था। मैं नाराज थी और इन आंसुओं को छुपाने का कोई प्रयास नहीं था। ठान के बैठी थी कि एक साल होते ही मैं वापिस आऊंगी, दोस्तों से, मां-बाप से सबसे कह चुकी थी मैं वापिस आऊंगी। एयरपोर्ट के आटोमेटिक दरवाजे जब बंद हुए तो पीछे मुड़ के अपने मा-बाप को इस तरह देखा जैसे नाराज हूं, उनसे की उन्होंने क्यों नहीं रोका।

फ्लाइट में जाने से पहले के टाइम को थोड़ा टीवी देखके, थोड़ा फोन पे बात करके और थोड़ा घर का खाना खा के, पास में बैठे अपने पति से बिना बात किए गुजारा। जब फ्लाइट उड़ी तो अपने देश की धरती को आसमान से तब तक देखती रही जब तक बादलों ने भी साथ छोड़ दिया। भर ले ये उड़ान मैं, चल बैठी अमेरिका। भारत से 8000 मिले दूर, दिन रात के हिसाब से 13.5 घंटे दूर, अमेरिका।

बचपन से ही घर में, स्कूल में सीखा की भारत सबसे महान देश है। बड़े हुए तो ये एहसास मानो जैसे मन में जब था, किसी और देश में रहने की बात से ही विद्रोही जैसा लगने लगा था। एयरपोर्ट बदल के, प्लेन बदल के, सुन्न कानों से, सूजी आंखों से और थके हुए पैरों से अमेरिका में पहला कदम रखा। कागजों को हाथ में लिए हजार लोगों के साथ हम भी लाइन में खड़े हुए।

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दिल जोर से धडक़ रहा था, यहां की पुलिस से डर लग रह था, लंबे भारी शरीर और ऊंची आवाज, कहीं मुझसे कोई गलती न हो जाए, मन में ऐसा विचार आ रहा था। भारत होता तो अभी लाइन से कोई निकल आया होता, पुलिस वाले को भैया बोल के थोड़ी हेकड़ी दिखा दी होती, पर यहां इनसे डर लग रहा था। अंतर क्या है दोनों में, काम तो दोनों एक ही कर रहे हैं। 'क्यों आए हो, क्या लाए हो' के जवाब देने के बाद खिडक़ी के पीछे बैठी महिला ने कहा, वेलकम इन अमेरिका।

सामान लेने के बाद जब बाहर आए, टैक्सी की लाइन में लगे और आराम से अपनी बारी आने पर अंदर बैठे। टैक्सी ड्राइवर ने इंग्लिश में बातें करनी शुरू की, एक पल के लिए एक ड्राइवर को इंग्लिश बोलते हुए अजीब सा लगा, फिर ठनका कि ये तो उनकी मात्र भाषा है। महिला ड्राइवर अच्छे घर की लगी, गोरी, जवान और सुन्दर, उसने हमारा भारी सामन तक उठाया, मुझे तो बात करते हुए लग रहा था मानो कटरीना कैफ की बहन है।

बात करके पता चला की वो इंडिया जाना चाहती है, ताज महल देखने के लिए और पैसे बचा रही है। विचार आया कि क्या इंडिया में एक टैक्सी ड्राइवर स्टेचू ऑफ लिबर्टी देखने किए लिए पैसे बचाएगा। अंतर क्या है दोनों में, काम तो दोनों एक ही कर रहे हैं।

फिर मेरी नजर पड़ी अमेरिका पर! चौड़ी-लम्बी सडक़ें, सडक़ की दोनों तरफ घने पेड़। सब अपनी लाइन में एक कार के पीछे दूसरी कार चलाते रहे। सब अपनी लेन में ही चला रहे थे।

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किसी को दूसरी लाइन में आना होता तो इंडिकेटर देकर लेन चेंज करते। ट्रैफिक लाइट आने पर सब आराम से रुके। पैदल चलने वालों की अलग बत्ती है, जब हम रुके तो ही उनकी बारी आई। सडक़ पर बनाई गई जेबरा क्रासिंग को ही इस्तेमाल किए और दो गाडिय़ों के बीच से कोई भी नहीं निकला। जब लाल से हरी बत्ती हुई तो कोई हॉर्न का शोर न था, भीड़ होते हुए भी आगे जाने की मारा-मारी नहीं थी, सब ने अपना समय आने पर ट्रैफिक रूल और स्पीड लिमिट को मानते हुए गाड़ियां आगे बढ़ाई। एक गाड़ी को शायद अपनी लेन से दूसरी लेन में आना था, स्पीड लिमिट काफी ज्यादा थी।

लेकिन पीछे आने वाली एक गाड़ी ने गाड़ी धीमी की और इस गाड़ी को सम्मान पूर्वक हाथ दिखा के आने का इशारा किया। लेन चेंज करने के बाद, गाड़ी वाले ने हाथ का ही इशारा करते हुए, पीछे वाली गाड़ी को सामान पूर्वक धन्यवाद किया। ट्रैफिक रूल्स तो हमारे यहां भी हैं, फिर लोग उन्हें मानते क्यों नहीं, क्यों इतनी भागम-भाग है कि किसी के लिए हम रुकते नहीं, क्यों इतनी जल्दी है कि एक सेकंड का भी इंतजार नहीं, क्यों इतने हॉर्न बजते हैं। अंतर क्या है दोनों में, रूल्स तो दोनों जगह एक हैं। अमेरिकंस में अनजाने लोगों के लिए सामान क्यों है, भाईचारा तो हिन्दुस्तानियों में है।

तभी पीछे से साइरन की आवाज आई, देखा तो एक एम्बुलेंस हमारी तरफ आ रही थी, जगह कहां है ये सोच के अपना शहर याद आ गया, लेकिन देखा तो सारी गाडिय़ां इंडिकेटर देते हुए साइड में होती जा रहे थीं, हरी बत्ती होते हुई भी कोई सड़क क्रॉस न कर रहा था, जहां जगह नहीं थी, वहां लोग गाडिय़ां चिपका रहे थे और एम्बुलेंस जगह देकर वहां से निकाला गया। क्या किसी की जान इन सब ने बचा ली। मन में ख्याल आया कि क्या ऐसा कभी मेरे यहां होगा। अंतर क्या है दोनों में, इंसानियत तो हिन्दुस्तानियों में है।

आधे घंटे के सफर से अगले कुछ महीने क्या-क्या होगा, ये सोचना अभी बाकी है, यह मेरा देश नहीं है। नए विचाराओं के आने से पहले ही आंखें बंद कर ली, और बाकी का रास्ता झपकी में गुजर गया।​

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