गज़ल : गमे-इश्क तो अपना रफीक रहा, कोई और बला से रहा-न-रहा

Update: 2017-11-10 12:56 GMT

बहादुर शाह जफर

नहीं इश्क में इसका तो रंज हमें,

किशिकेब-ओ-करार जरा न रहा

गमे-इश्क तो अपना रफीक रहा,

कोई और बला से रहा-न-रहा

दिया अपनी खुदी को जो हमने मिटा,

वह जो परदा-सा बीच में था न रहा

रहे परदे में अब न वो परदानशीं,

कोई दूसरा उसके सिवा न रहा

न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर,

रहे देखते औरों के ऐबो-हुनर

पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र,

तो निगाह में कोई बुरा न रहा

हमें सागरे - बादा के देने में अब,

करे देर जो साकी तो हाय गजब

कि यह अहदे-निशात ये दौरे-तरब,

न रहेगा जहां में सदा न रहा

उसे चाहा था मैंने कि रोक रखूं,

मेरी जान भी जाए तो जाने न दूं

किए लाख फरेब करोड़ फसूं,

न रहा, न रहा, न रहा, न रहा

‘ज़फर’ आदमी उसको न जानिएगा,

हो वह कैसा ही साहबे, फहमो-ज़का

जिसे ऐश में यादे-खुदा न रही,

जिसे तैश में खौफे खुदा न रहा

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