बचपन में बहराइच के घंटाघर के मैदान का सांस्कृतिक मंच अक्सर बड़े-बड़े कवियों की कविताओं से गुंजायमान रहता था। सर्वश्री गोपाल दास नीरज, पवार, काका आदि जैसे धुरंधर कवियों के गीत और कवितायें सुनकर हजारों की संख्या में श्रोतागण मदमस्त होकर बिना बाबा रामदेव जैसे किसी बाबा की सलाह लिये घंटों तालियां पीट-पीटकर अपनी खुशी का इजहार करते।
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तब हम बहुत छोटे थे पर कविता सुनने, समझने ताली बजाने का उपयुक्त समय हमें पता होता था। न पता हो, न समझ आये तो भी बाकी सबके ताली पीटने पर हमें पता लग ही जाता था कि कवि ने कोई बढिय़ां बात कही है। और धीरे-धीरे हमें यह बात भी समझ में आ गई थी कि कोई कवि जब ज़्यादा बोर करने लगे तो किस तरह की ताली बजाई जानी चाहिये।
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संचार क्रांति के दौर में जब टीवी और इंटरनेट की घर के बेडरूम तक पैठ बनीं तो कवि सम्मेलनों ने सिकुडक़र गोष्ठियों का रूप ले लिया। कहना न होगा कि अब फेसबुक, ट्वीटर और वाट्सअप के ज़माने में तो कवि और कवि सम्मेलनों ने उंगली और अंगूठे के सामने अपना अंगूठा ही टेक दिया है। सोशल मीडिया के दौर में आज एक अजीब क्रांति भीे देखने को मिली है। कल तक जो लोग मात्र श्रोता की हैसियत से कवि सम्मेलनों की ओर अपना रुख करते थे उनमें से आज अधिकांश दो-चार लाइनें लिखकर महाकवि या राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कवि बन बैठे हैं। अथवा दो-चार शेर लिखकर सवा शेर हो गये हैं। कल तक जो मंच सुंदर और स्मार्ट कवयित्रियों की कम संख्या से प्राय: मायूस-सा रहता था वह आज महिला सशक्तिकरण के जमाने में बाग-बाग नजऱ आता है। इन सुंदर कवयित्रियों की प्रतिभा और मांग के चलते आज अनेक तथाकथित हल्के-फुल्के पुरुष कवि अपनी रोजी-रोटी से भी हाथ धो बैठे हैं।
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हमारे दादा-दादी के ज़माने में शहर का हर व्यक्ति कम से कम चौथी पास तो होता ही था। फिर जमाना आया मैट्रिक पास वालों का। उसके बाद कहा जाने लगा कि जिस घर में पत्थर फेंको उस घर में वह पत्थर किसी बीए पास को ही लगेगा। कहावत का प्रमोशन हुआ तो उसे एमबीए, बीटेक और इंजिनियरों से जोड़ दिया गया। बदलते जमाने में अब यह कहा जाने लगा है कि आज जिस घर में पत्थर फेंको वह जाकर उस घर में एक कविता पास कवि को ही लगेगा। कहना न होगा कि आज यह डिग्री इतनी सर्वसुलभ हो गई है कि हर घर में परिवार नियोजन को धत्ता बताते हुए कवि, महाकवि या राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय कवियों की संख्या निरन्तर बढ़ती ही जा रही है।
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यही वजह है कि कल तक जो कवि, कवि सम्मेलनों में हैंडसम पारिश्रमिक के ऑफर के बिना हिलते तक नहीं थे वे आज जेब से पैसा खर्च करके भी कवि सम्मेलनों की शोभा बिगाडऩे को आतुर रहते हैं।
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पिछले दिनों साहित्यिक और मंचीय राजनीति का शिकार हुए बगैर मुझे भी एक काव्य गोष्ठी का हिस्सा बनने का सुअवसर मिला। जहां पर कवि गोष्ठी होनी थी वह छोटा-सा हाल खचाखच भरा हुआ था। मेरे मन में कविता और कवियों के प्रति एक नई उम्मीद जगी ही थी कि किसी ने यह कहकर मेरे उम्मीदों की हवा उड़ा दी कि हाल के कोने में सबसे पीछे बैठे एक दुबले-पतले सज्जन व्यक्ति को छोडक़र बाकी सारे के सारे यहां कवि ही हैं। पूरे कवि सम्मेलन के दौरान आयोजकगण कवियों को छोडक़र उन एकलौते श्रोता महोदय की तीमारदारी में ही लगे रहे। यही नहीं कवि सम्मेलन के अंत में उन श्रोता महोदय का बाकायदा मंच पर सम्मान भी किया गया ताकी वे अगली बार भी कवि सम्मेलन में श्रोता का पद निभाने अवश्य आयें और सम्मान का लालच देकर औरों को भी खींचकर लायें।
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कवियों की भीड़ पर याद आया कि एक कवि सम्मेलन में तो कवियों की भारी संख्या और समय की तंगी के चलते कुछ कवियों को दो-दो की संख्या में युगल कवितायें सुनाने पर मज़बूर होना पड़ा और फिर बाद में तो समूह में खड़े होकर अनेक कवियों को सामूहिक गान सुनाकर ही संतोष की सांस लेनी पड़ी।
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हाल ही में एक काव्य गोष्ठी का बुलावा आने पर जब मैंने अपने एक कविता प्रेमी मित्र से साथ चलकर कविताओं का आनन्द उठाने को कहा तो वह वह इस बात पर साफ अड़ गया कि पेमेंट दिलाओ तभी कविता सुनने चलूंगा। मैंने उसके इस बेतुके प्रस्ताव पर उसे प्यार और क्रोध दोनों ही तरीके से समझाया।
पर वह जि़द्दी श्रोता अपनी बात पर अड़ा रहा। मैंने उसे भला-भला कहते हुए समझाया, ‘अबे श्रोता के बच्चे मैं यहां महाकवि होकर जेब से पैसे लगाकर मात्र एक चाय-समोसे के ऑफर पर कविता सुनाने जा रहा हूं और तू कविता सुनने के भी पैसे मांग रहा है?’ मेरी बातों के जवाब में वह बोला, ‘तुझे बाजार का नियम नहीं पता। बाजार में जिस चीज की बहुतायत होती है उसके दाम गिरते जाते हैं और जिस चीज की कमी होती है उसके दाम बढ़ते जाते हैं। ऐसे में अब जबकि 99 प्रतिशत लोग कवि हो गये हों और उन्हें सुनने वाले मुझ जैसे एक प्रतिशत श्रोता ही बचे हों तो दिन तो एक प्रतिशत के ही फिरेंगे न?’
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खुंदक के बावजू़द मुझे उसकी बातों में काफी कुछ दम नजऱ आया। मैंने उसी समय आयोजक को फोन खडख़ड़ाते हुए पूछा कि आज के कवि सम्मेलन में कितने श्रोता हैं? आयोजक ने जवाब दिया, ‘अभी तक तो सारे कवि ही दिख रहे हैं यहां।’ मैंने फिर उससे पूछा, ‘एक श्रोता मिल रहा है, ले आऊं, पर कुछ पेमेंट करना पड़ेगा उसे।’ इस पर कुछ न-नुकुर और बार्गेनिंग के पश्चात अंतत: 500 रुपये में मामला जम गया था। और शान से पास खड़े एक सज्जन के पाजामें पर पान की पीक थूकते हुए वह महान श्रोता मेरे साथ रिक्शे पर सवार होकर हमारे साथ चल पड़े थे।
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