अमा जाने दीजिये मोदीजी, क्या कह गए आप। लखनऊवालों को अखरा है। मतलब पान की पीक पर बोल गए आप। विवेकानंद जैसे बड़े आदमी पर बड़ी बातें ही बोलनी चाहिए थीं और गुफ्तगू पीक पर। पान की गिलौरियां तो लखनऊ की शान हैं और फिर आपका बनारस क्या मोमोज़ के लिए जाना जाता है! खई के पान बनारस वाला नहीं सुना क्या आपने। अपने दोस्त अमिताभ को फोन अ फ्रेंड लगाइए न... पूछ लीजिये।
नहीं तो मार्गदर्शक मंडल वाले मुरली मनोहर जोशी से पूछ लीजिये। ठीक है उनके कानपुर में पान नहीं खाया जाता लेकिन जनाब गुटखा तो वहां के सभी गुट खाते हैं। फिर पान खाएं या गुटखा पीक तो बनती हैं। इश्टाइल का मुआमला भी है जनाब। जब गिलौरी मुंह में जाती है तो दांतों के दोनों तलों के बीच कूटा नहीं जाता। पहले गिलौरी को दाहिने हाथ में लिया जाता। फिर मुंह में रखा जाता है। मुंह में रखने के बाद होठों को हल्का सा खुला छोडक़र इंतज़ार करना होता है।
इस दौरान अपना दाहिना हाथ आगे कर पानवाले से एक कागज़ या पत्ता लेना होता है, जिसमें चूना होता है। उस चूने को अनामिका उफऱ् रिंग फिंगर पर मुलायमियत से दबाते हुए घसीटना होता है। फिर मुंह को हल्का सा खोलते हैं, जीभ को निचले तल के दांतों के ऊपर दाहिने ओर से आगे लाते हैं। उसके बाद निचले होंठ की ऊपरी सतह को पूरी ताकत से आगे धकेलते हैं। फिर अपनी जुबान पर चूना रखा जाता है और उसे अन्दर लिया जाता है। जब गिलौरी चूने को अपनी आगोश में ले लेती है, तब पान खवाई शुरू हो पाती है जनाब।
अब सवाल ये होगा कि हम गिलौरी में चूना क्यों लगाते हैं तो वो इसलिए कि कोई दूसरा हमें चूना न लगा पाए। फिर पान चबाना भी एक हुनर है हुज़ूर। मतलब आप तो उस तरह खा ही नहीं सकते क्योंकि उसके लिए एक लम्बे समय तक खामोश रहना पड़ता है। पीक तैयार करने में घंटों मेहनत करनी पड़ती है जनाब और आप हमारी इस नवाबी पीक की मजम्मत कर रहे हैं। अरे आप अपने मेट्रोमैन ई. श्रीधरन से पूछिए न।
वो पूरा सम्मान देते हैं हमारे इस टैलेंट को। हमारे इसी शौक पर मैट्रो कंस्ट्रक्शन वाले क्षेत्र में वो दस लाख रुपैया महीना खर्च कर रहे हैं। जानते हैं कि हम पीक को कीप थोड़ी करेंगे, जहां मन आयेगा... धरेंगे। (वैधानिक चेतावनी- तम्बाकूयुक्त उत्पाद खाना हानिकारक है और इस लेख में जगह-जगह थूकने वालों को तंज के जरिये बेहयाई के हद तक जलील करने की कोशिश की गयी है।)