आ गये फिर दिवस कातिक क्वार के
सिलसिले दर सिलसिले त्योहार के!
भोर निकली ओस में जैसे नहाकर
देखते ही मुझे ठिठकी अचकचा कर
दृश्य अद्भुत प्रकृह्यति के अभिसार के!
दिन धुले से तरोताजा और टटके
मेघ नभ मे दिखें भूले और भटके
गहगहाये फूल हरसिंगार के!
सुआपंखी रंग सर चढ़ बोलता है
हरा पारावार अहरह डोलता है
दिन फिरे फिर बाजरे के ज्वार के!
आ गये फिर दिवस कातिक क्वार के!!