विनोद की कलम से निकला है 'दरबे में भेडिय़ा', इंसान पर चोट करती कविता

Update:2017-08-25 15:07 IST

विनोद कपूर

।। दरबे में भेडिय़ा ।।

देह के दरबे में दुबककर

बैठा है एक भेडिय़ा

वह रह-रहकर उचकाता है

अपनी गर्दन,

उसकी आंखों से

निकलने लगती हैं चिंगारियां,

चमक उठते हैं उसके पैने दांत,

निकलने लगते हैं

उसके नुकीले नख,

वह हमारी रूह पर

छाने लगता है

और हमारी सम्पूर्ण सत्ता पर

आधिपत्य जमा लेना चाहता है,

हमारी किंचित अनवधानता का

लाभ उठाकर

वह हमें मनुष्य नहीं रहने देता,

बना देता है

एक हिंसक पशु-भेडिय़ा...!

आदिम सभ्यता के हर दौर में

हमने देखे हैं

मनुष्य-शरीर में भेडिय़े

और देखा है उनका हश्र भी,

लेकिन इन दिनों

उनकी संख्या में हुआ है

तेजी से इज़ाफ़ा,

बढ़ी है उनकी तादाद

और मनुष्यों की हर जमात में

मची है हलचल,

उठा है कोलाहल और आत्र्तनाद...!

ऐसे मनुष्य-देहधारी भेडिय़ों को

चिन्हित कर लेना आसान नहीं है,

आदमी की भीड़ में

भेडिय़ों की सहज पहचान नहीं है...!

जितनी क्षिप्रता से

मनुष्य भेडिय़ों में तब्दील होते हैं,

उतनी ही शीघ्रता से

मनुष्यता को कलंकित कर

वे मनुष्य बन जाते हैं

और मनुष्य-समुदाय में

शालीनता से सिर झुकाये

सम्मिलित हो जाते हैं...

हम कैसे पहचानेंगे उन्हें...?

कैसे करेंगे उनकी शिनाख्त...?

यही प्रश्न है,

और, यह भी एक बड़ा और मारक प्रश्न है कि

आज का आदमी

कितना बचा रह गया है मनुष्य-सा...?

नयी पौध की परवरिश में

कहीं कुछ गलत हो रहा है

कोई विष मस्तिष्क में

फैल रहा है तेजी से

वायरल-सा,

कुछ विषाक्त परोसा जा रहा है

उसके सामने बेधडक़, और

भेडिय़ा उचका रहा है बार-बार अपनी गर्दन,

मनुष्य की आंखों में उतर रही हैं

भेडिय़े की आंखें--तीक्ष्ण, हिंसक, भयावह आंखें...!

संस्कारों की नींव पर ही

उन्हें पिलानी होगी

आत्मानुशासन की घुट्टी, जिससे

धीरता और धैर्य से,

बुद्धि और विवेक से,

प्रज्ञा और ज्ञान के आलोक से

वे आसुरी शक्तियों को परास्त कर सकें...!

हम चाहें तो

भेडिय़े के नख का पैनापन

कुंद कर सकते हैं

तोड़ सकते हैं उसके नुकीले दांत

निष्प्रभ कर सकते हैं

उसकी चमकीली आंखें

और उसके गले में डाल सकते हैं

आदमीयत का मज़बूत पट्टा,

दुम दबाकर दरबे में ही

रहने को कर सकते हैं उसे बाध्य...!

आज हमें अपने मनुष्य होने के दावे को

सिद्ध करने की मजबूरी है...!

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