कविता: है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है, कल्पना के हाथ से

Update:2017-10-21 13:04 IST

हरिवंशराय बच्चन

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था

भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से संवारा

स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था

ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को

एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम

का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम

प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा

थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम

वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली

एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई

कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई

आंख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती

थी हंसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई

वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना

पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा

वैभवों से फेर आंखें गान का वरदान मांगा

एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर

भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा

अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही

ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए

पास क्या आए, ह्रदय के बीच ही गोया समाए

दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर

एक मीठा और प्यारा जिन्दगी का गीत गाए

वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे

खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

क्या हवाएं थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना

कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना

नाश की उन शक्तियों के साथ चलता जोर किसका

किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना

जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से

पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है

है अंधेरी रात पर दिया जलाना कब मना है

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