कविता: आँख का आँसू, आँख का आँसू ढ़लकता देखकर

Update: 2018-02-02 11:33 GMT

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

आँख का आँसू ढ़लकता देखकर

जी तड़प कर के हमारा रह गया

क्या गया मोती किसी का है बिखर

या हुआ पैदा रतन कोई नया ?

 

ओस की बूँदे कमल से है कहीं

या उगलती बूँद है दो मछलियाँ

या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी

खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।

 

या जिगर पर जो फफोला था पड़ा

फूट कर के वह अचानक बह गया

हाय था अरमान, जो इतना बड़ा

आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।

 

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ

यों किसी का है निराला पन भया

दर्द से मेरे कलेजे का लहू

देखता हूँ आज पानी बन गया ।

 

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी

वह नहीं इस को सका कोई पिला

प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी

वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।

 

ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो

वह समझते हैं सफर करना इसे

आँख के आँसू निकल करके कहो

चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?

 

आँख के आँसू समझ लो बात यह

आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े

क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह

जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।

 

हो गया कैसा निराला यह सितम

भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया

यों किसी का है नहीं खोते भरम

आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?

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