नहीं ....
उनके कोई हाथ नहीं,
पैर भी नहीं है, माथा भी नहीं है!
न आँखें, न नाक, मुँह ..सर ...बाल पीठ ..पेट ...
कुछ भी नहीं है उनके!!!
निराकार है मेरे शब्द ..
शब्दों के वो भ्रूण,
जो मेरे मस्तिष्क में पल रहे है ...
उनका कोई प्रारूप नहीं है, कोई स्वरूप नहीं है!!
मेरे ही भीतर, प्रस्फुटित हुए थे ,
अंकुरित हुए थे, जब प्रेम किया था मैंने !
तुमसे,हाँ !!
जब तुमसे प्रेम किया था मैंने!!
वो शब्द ...पल पल मेरे भीतर,
छटपटाते और अगले ही पल
जन्म ले...भाषा के रूप में,
मुझ से तुम तक, और तुम्हारे हृदय,
मस्तिष्क में समा जाते !
मेरा मौन भी तो पलता रहा है तुममें !!
जब कोई आहट नहीं, आवाज नहीं होती थी
होते थे ..सिर्फ तुम और मैं
और मौन !!
मेरे शब्द, मेरी भाषा,
आँखो की भाषा, होंठो की भाषा,
उँगलियों की भाषा, नेह की भाषा,
और देह की भाषा,
मुझसे प्रेषित हो,तुममें समाहित हो गए थे !
याद है तुम्हें ??
और अब,
जब की वो तंतु ... नेह का तंतु ,
प्रेम का सेतु टूट गया, बिखर गए ...
वो सब मेरे शब्द, जो ढले थे और
पलें थे तुममें, वो मौन के शब्द,
वो स्पर्श के शब्द, सभी के सभी शब्द,
विलीन हो गए, शून्य में .....
किसी अंधेरी गर्त में !!
मगर ....
मेरे मस्तिष्क के गर्भ में
अब भी,जनम लेते है शब्द ....
प्रेम के शब्द, अथाह पीड़ा के शब्द ....
मगर,
गर्भपात होता है !
मैं ...
मैं करती हूँ गर्भपात !!
शब्दों को,जनम नहीं लेने देती !!!
मार देती हूँ !!! गला घोंट देती हूँ उनका !!
वो छटपटाते हैं, दम तोड़ देते हैं...
और बह जाते हैं, आँखों के पोरों से,
शनै शनै, और पुन:, गर्भ धारण होता है !
मगर मैं, फिर उन्हें मार देती हूँ !!
गर्भपात करा देती हूँ , मस्तिष्क में जने
शब्दों का ,विचारों का !!
हाँ ... हाँ ... हाँ ...
मैं भ्रूण हत्यारण हूँ !!