कविता: बरफ पड़ी है- सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है

Update:2017-12-08 17:24 IST

बरफ पड़ी है

सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है

सजे सजाए बंगले होंगे

सौ दो सौ चाहे दो एक हजार

बस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार

देवदारूमय सहस बाहु चिर तरुण हिमाचल

कर सकता है क्यों कर अंगीकार

 

चहल पहल का नाम नहीं है

बरफ बरफ है काम नहीं है

दप दप उजली सांप सरीखी

सरल और बंकिम भंगी में -

चली गयीं हैं दूर दूर तक

नीचे ऊपर बहुत दूर तक

सूनी सूनी सड़कें

 

मैं जिसमें ठहरा हूँ

वह भी छोटा-सा बंगला है -

पिछवाड़े का कमरा

जिसमें एक मात्र जंगला है

 

सुबह सुबह ही

मैने इसको खोल लिया है

देख रहा हूँ बरफ पड़ रही कैसे

बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे

या कि विमानों में भर भर कर

यक्ष और किन्नर बरसाते

कास कुसुम अविराम

 

ढके जा रहे

देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग

ठिठुर रहीं उँगलियाँ

मुझे तो याद आ रही आग

 

गरम गरम ऊनी लिबास से लैस

देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात

शीशामढ़ी खिड़कियों के नजदीक बैठकर

सिमटे सिकुड़े नौकर चाकर चाय बनाते होंगे

 

ठंड कड़ी है

सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है

बरफ पड़ी है

- नागार्जुन

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