कविता: मौसम बेघर होने लगे हैं, बंजारे लगते हैं मौसम, मौसम बेघर होने लगे हैं
मौसम बेघर होने लगे हैं
बंजारे लगते हैं मौसम
मौसम बेघर होने लगे हैं
जंगल, पेड, पहाड़, समंदर
इंसां सब कुछ काट रहा है
छील छील के खाल ज़मीं की
टुकड़ा टुकड़ा बांट रहा है
आसमान से उतरे मौसम
सारे बंजर होने लगे हैं
मौसम बेघर...
दरयाओं पे बांध लगे हैं
फोड़ते हैं सर चट्टानों से
’बांदी’ लगती है ये ज़मीन
डरती है अब इंसानों से
बहती हवा पे चलने वाले
पांव पत्थर होने लगे हैं
मौसम बेघर होने लगे हैं