कविता: बसन्त, हवा है अब्र है और सैर-सब्ज़ा-ज़ारे-बसन्त

Update:2018-02-02 16:56 IST

बहादुर शाह जफर

हवा है अब्र है और सैर-सब्ज़ा-ज़ारे-बसन्त

शिगुफ़्ता क्योंऔ न हो दिल देखकर बहारे-बसन्त

 

ख़बर बसन्त की भी कुछ तुझे है ऐ साक़ी!

पियाला भर, कि है फिर आमदे-बहारे-बसन्त

 

किया बसन्त के मिलने का वादा जो उसने

तमाम साल रहा हमको इन्तज़ारे-बसन्त

 

समझ न सेहने-चमन में इसे गुले-नरगिस

झुकी हुई है ‘जफर’ चश्म- पुर-ख़ुमारे-बसन्त

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