कविता : मुद्दतें हुईं खिडक़ी से बाहर झांके, अब तो लोग ही मुझे बारिश की खबर देते हैं

Update: 2017-11-25 08:07 GMT

उषा पाण्डेय

मुद्दतें हुईं खिडक़ी से

बाहर झांके।

अब तो लोग ही मुझे

बारिश की खबर देते हैं।

मैं तो भीतर ही भीतर

भीगती रहती हूँ तुम संग,

तुम्हारी रंगीन यादों में।

बन्द रखती हूं अक्सर

खिडक़ी दरवाजेे।

तुम्हारी यादों से लबरेज,

कब कौन सा लम्हा,

इन दीवारों की गिरफ्त से

निकल भागे।

कितना सम्भाल कर रक्खा है,

इन बिखरते लम्हों को।

तपन बाहर कितनी भी हो,

नहीं आने देती भीतर

शुष्क हवाओं को।

नमी भीतर बनाए रखती हूँ।

बरसों बीत गए,

नहीं बदला कुछ भी।

वही दीवारें, बन्द खिड़कियां

और वहीं दहलीज पर खड़े तुम।

नहीं आता कोई, इस तन्हाई में

और मैं भी खुश हूँ

तुम संग यहीं।

मुझे मुकम्मल कर देता है

तुम्हारा साथ।

दिन कोई भी आए जाए,

अब तो लोग ही मुझे बाहर के

मौसम की खबर देते हैं।।

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