एक लड़की
चहकती मुस्कराती
महकती गुदगुदाती
न जाने कब बड़ी हो जाती है।
धरती की तरह
गृहस्थी का गुरु गंभीर भार
वहन करने को तत्पर
यह लड़की
खुली और मुंदी आंखों से
देखती है सपने
बुनती है कहानियां
गुनगुनाती है गीत
बांचती है कविता
बार-बार निहारती है दर्पण
श्रृंगार करते हुए
और न करते हुए भी।
मायके की दोहरी से
विदा लेते ही
शुरू हो जाती हैं
प्रदक्षिणाएं वर्जनाएं
आकांक्षाओं के साथ अपेक्षाएं
इन सबके बीच
दब जाती है वह सुकुमार लड़की
स्मृतियों के गर्त में डूब जाते हैं
उसके सपने
उसकी कहानियां और गीत
मुड़े-तुड़े पन्नों में खो जाती है
उसकी अधलिखी कविता भी।
क्योंकि
उसने घुट्टी में पिया है
तालमेल बैठाने का तरीका
उसे सिखाया गया है
सबको खुश रखने का सलीका
वह एक मां है, बहन है, पुत्री है
बहू है, प्रेयसी है, पत्नी है
परिवार का समीकरण
उसे ही करना होता है हल
उसे भी नहीं पड़ती कल
क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है
और सभी को है उसी पर भरोसा भी।
एक स्त्री ही है
परिवार, समाज देश और विश्व का
केंद्र, त्रिज्या, व्यास, परिधि
और उनसे निर्मित वृत्त
वृत्त के अंदर लघु वृत्त
अन्तर्वृत्त, परिवृत्त
उसे ही दिखाने हैं रास्ते
उसे ही चलना है उस पर
संसार में फैले
अनेक ब्लैक होलों से बचते हुए
खोजनी हैं सुरक्षित राहें
बदलने हैं पारंपरिक रास्ते भी।
संसार का कोई अनुष्ठान
पूर्ण नहीं होता मातृशक्ति के बिना
स्त्री जीवन स्वयं एक अनुष्ठान है
अनेक आड़ी-तिरछी सिलवटों से भरा।।
डॉ. अमिता दुबे