कविता, मट्टी का मोह: कली के रूप में जीते समय, देखा करती थी ख्वाब

Update:2017-12-08 16:15 IST

मट्टी का मोह

कली के रूप में जीते समय

देखा करती थी ख्वाब

मैं भी बनूँगी फूल

एक दिन

लेकिन पता भी न चला

कि कब

डाल से टूटकर

मिट्टी में मिल गयी?

अब तो विवशता का साम्राज्य है

सो,

बदन की धूल को झाड़ कर

हँसने का प्रयत्न कर रही हूँ

भय था -

अगर आँसू बहाया

तो कीचड़ में सन जाऊँगी

लेकिन आज आंखें खुली हैं -

फूल का अवसान

जीवनदान भी तो होता है फूल ही के लिए?

यही सोचकर

मिट्टी के साथ इस कदर

मोह हो गया है।

- रूपा धीरू

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