गंगोत्री की गोद से निकल
पर्वत-पर्वत,उछल-उछल
करती कल-कल
बहती निश्छल
हर लेती सबके संताप
धो देती हूँ मन का पाप
छोड़ पहाड़ों की परछाईं
मै गंगा तेरे शहर में आई
खोया मैंने रूप निराला
श्वेत रंग मेरा हो गया काला
मैं जीवनदायिनी
खो रही अपना स्त्रीत्व
गुम हो रहा मेरा अस्तित्व
मैं भागीरथी कर रही प्रतिक्षा
कभी तो जागेगी
किसी भागीरथ की इ‘छा
मैं सुरसरि,
नहीं हूँ निराश मैं
डगर-डगर,नगर-नगर
भटक रही हूँ...
निर्मल बनने के प्रयास में
भटक रही हूँ....
स्वयं में स्वयं के
अस्तित्व की तलाश में...
स्वयं में स्वयं के
‘अस्तित्व की तलाश’ में....