पर्वत की व्यथा
एक पर्वत खड़ा चुपचाप
आप ही जलता मन में लेकर संताप
मैंने पुछा-क्यों हो तुम चिंतित निशब्द?
लगता है जैसे बैठे हो कोसने अपना प्रारब्ध
वह बोला उदास मन से - लगता है जैसे
मानव को अब नहीं है मेरी जरूरत
वह जा पहुंचा है मंगल पर,
क्यों देखे अब मेरे घाव
सोचा था वरदान पाकर सेवा करूंगा जन-जन की,
क्या पता था परहित में, मै ‘पर’ से ही लूटा जाउंगा
प्रकृति ही जीवन हे, यह जान वह झल्लाया
ईश्वर ने जो दिया उसे उपहार पाकर बौराया
मानव भस्मासुर बनकर सारी बातें भूल गया,
अपने आशियाने के लिये, मुझे ही उजाड़ दिया
मेरी सुन्दरता को निहारते थे लाखों सैलानी
अब यहाँ पड़े कचरे को देख दे गए मुझे वीरानी
हे मानव! जान जरा तू मेरा मोल
यूँ ना उजाड़ यह तोहफा अनमोल
नहीं मिलेगी नदिया, लकड़ी, औषधि ऊर्जा
न मिलेंगे पर्यटन के खुबसूरत नजारे, और वर्षा
भले पहुचो तुम चाँद या मंगल
ओर बना लो अनेक उपग्रह
जिस प्रकृति ने तुम्हे प्रगति दी है
अब तो समझो तुम उसका मोल॥