कविता: कमरे में धूप... हवा और दरवाजों में बहस होती रही

Update:2018-10-26 17:20 IST

कुँवर नारायण

हवा और दरवाजों में बहस होती रही,

दीवारें सुनती रहीं।

धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी

किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर

हवा ने दरवाजे को तड़ से

एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,

अखबार उठ कर खड़ा हो गया,

किताबें मुँह बाये देखती रहीं,

पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,

मेज के हाथ से कलम छूट पड़ी।

धूप उठी और बिना कुछ कहे

कमरे से बाहर चली गई।

शाम को लौटी तो देखा

एक कुहराम के बाद घर में खामोशी थी।

अँगड़ाई लेकर पलंग पर पड़ गई,

पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,

सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,

आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

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