स्पन्दन: निर्मिमेष मैं खड़ी रही, दृश्य विहंगम ऐसा था, अगणित रंगत लिए हुए था

Update:2017-10-28 16:03 IST

स्पन्दन

 

निर्मिमेष मैं खड़ी रही ,

दृश्य विहंगम ऐसा था ,

अगणित रंगत लिए हुए था,

रंग न उसमें कोई था ।

 

नितांत अंधेरे में वह केवल,

एक दिया जलता रहता था,

ऊपर उसके कीट नहीं थे,

उच्छवास स्पन्दित था ।

 

था गौरव है गौरव उसको,

अभिमान न यह खंडित होगा,

प्रात: सायं अपराह्न रात्रि,

जलता उजियारा देता था ।

 

अनवरत चल रहा यह उपक्रम,

शैशव से प्रौढ़ा आ पहुँचा,

भंग हो गये नियम एकदिन ,

विचलित वह इस बार हुआ था ।

 

आंधी आई बरखा भीगी ,

बदल गया घर उपवन सब,

सबने परिवर्तन स्वीकारा,

अपने जैसा एक वही था ।

कर्म सफल करते-करते वह,

एक दिन ऐसा बन बैठा,

मस्तक पर आभा थी उसके,

दिव्य बांध वह बंधा हुआ था ।

निर्मिमेष मैं खड़ी रही...

दृश्य विहंगम ऐसा था...

 

- प्रतीक्षा तिवारी

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