भय्यूजी महाराज: बहुत कुछ बता गए जाते जाते

Update:2018-06-13 17:16 IST

भैयूजी महाराज जैसा व्यक्तित्व जिसे राष्ट्र संत की उपाधि दी गई हो,

जिसके पास देश भर में लाखों अनुयायीयों की भीड़ हो,

इस भीड़ में आम लोगों से लेकर खास शख़सियतें भी शामिल हों,

इन शख़सियतों में केवल फिल्म जगत या व्यापार जगत ही नहीं सरकार बनाने वाले राजनैतिक दल से लेकर विपक्षी दलों तक के नेता शामिल हों,

इससे अधिक क्या कहा जाए कि इनसे सम्पर्क रखने वाली शख्सियतों में देश के प्रधानमंत्री भी शामिल हों,

लेकिन वो खुद संतों की सूची में अपनी सबसे जुदा शख्सियत रखता था,

जी हाँ भैयू जी महाराज ,वो शख़्स, जो आध्यात्म और संतों की एक नई परिभाषा गढ़ने निकला था,

कदाचित इसीलिए वो खुद को एक गृहस्थ भी और एक संत भी कहने की हिम्मत रखता था,

शायद इसीलिए वो मर्सिडीज जैसी गाड़ियों से परहेज नहीं करता था,

और रोलेक्स जैसी घड़ियों के लिए अपने प्रेम को छुपाता भी नहीं था,

क्योंकि उसकी परिभाषा में आध्यात्म की राह कर्म से विमुक्त होकर अर्थात सन्यास से नहीं अपितु कर्मयोगी बनकर यानी कर्म से होकर निकलती थी,

शायद इसीलिए जब इस शख्स से उसके आध्यात्मिक कार्यों की बात की जाती थी तो वो अपने सामाजिक कार्यों की बात करता था

वो ईश्वर को प्रकृति में, प्रकृति को जीवन में और जीवन को पेड़ों में देखता था

शायद इसीलिए उसने लगभग 18 लाख पेड़ लगवाने का श्रेय अपने नाम किया

शायद इसीलिए वो अपने हर शिष्य से गुरु दक्षिणा में एक पेड़ लगवाता था,

शायद इसीलिए वो ईश्वर को जीवन दायिनी जल में देखता था

शायद इसीलिए वो अपने आध्यात्म की प्यास जगहों जगहों अनेकों तालाब खुदवाकर बुझाता था

वो ईश्वर को इंसानों में देखने की कोशिश करता था शायद इसीलिए उसने महाराष्ट्र के पंडरपुर में रहने वाली वेश्याओं के 51 बच्चों को पिता के रूप में अपना नाम दिया था

शायद आध्यात्म उसके लिए वो बन्धन नहीं था जो उसे सांसारिक गतिविधियों से दूर करे बल्कि ये वो शक्ति थी जो उसे जिंदगी जी भर के जीने की आजादी देती थी,

शायद इसीलिए वो घुड़सवारी भी करता था तलवारबाजी भी करता था,

मोडलिंग भी करता था

और एक गृहस्थ संत बनके देश भर में अपने लाखों अनुयायी भी बना लेता था।

वो सबसे पहले चर्चा में तब आता है जब अन्ना हजारे का अनशन खत्म करने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार उन्हें अपना दूत बनाकर भेजती है और अन्ना उनके हाथों से जूस पीकर अपना अनशन समाप्त करते हैं।

प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में सदभावना उपवास पर बैठते हैं तो उनका उपवास खुलवाने के लिए इन्हें ही आमंत्रित किया जाता है।

वो उस मुकाम को हासिल करता है जब मध्य प्रदेश सरकार उसे राज्य मंत्री का दर्जा प्रदान करती है, हालांकि वो उसे ठुकराने का जज्बा भी रखता था।

लेकिन जब एक ऐसा व्यक्ति आत्महत्या जैसा कदम उठाता है तो वो अपनी जीवन लीला भले ही समाप्त कर लेता है लेकिन जाते जाते कई सवालों को जन्म दे जाता है।

लेकिन साथ ही कई उत्तर भी दे जाता है समाज को जैसे कि अपने ईश्वर को किसी अन्य इंसान में मत ढूंढो क्योंकि ईश्वर तो एक ही है जो हम सबके भीतर ही है।

वो लोगों को यह संदेश दे जाता है कि दूसरों को शांति का संदेश देने वाला खुद भीतर से अशांत भी हो सकता है।

वो यह जतला जाता है कि दुनिया पर विजय पाने वाला कैसे अपनों से ही हार जाता है।

अपने इस कदम से वह यह सोचने को मजबूर कर जाता है कि वर्तमान समाज में जिन्हें लोग संत मानकर, उन्हें ईश्वर के करीब जानकर उन पर ईश्वर तुल्य श्रद्धा रखते हैं क्या वे वाकई ईश्वर के करीब होते हैं?

वे यह जता जाते हैं कि जो लोग एक ऐसे व्यक्ति के पास अपनी उलझनों के जवाब तलाशते चले आते हैं क्या वे इस बात को समझ पाते हैं कि कुछ उलझनें उसकी भी होती होंगी, जिनके उत्तर वो किससे पूछे खुद उसको भी नहीं पता होता।

हाँ यह बात सही है कि ऐसे व्यक्ति विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं लेकिन यह भी तो सच है कि आखिर ये इंसान ही होते हैं।

हाँ ये बात सही है कि इनमें एक आम आदमी से ज्यादा गुण होते हैं लेकिन यह भी तो सच है कि कमजोरियां इनकी भी होती हैं।

 

लेकिन फिर भी ये समाज में अपने लिये एक ख़ास स्थान बनाने में इसलिए सफल हो जाते हैं क्योंकि अपनी कमजोरियों को ये अपनी प्रतिभा से छुपा लेते हैं और अपने अनुयायियों की संख्या को अपनी ताकत बनाने में कामयाब हो जाते हैं।

चूंकि हमारे देश के राजनैतिक दल इनकी इस ताकत को अपने वोटों में बदलना जानते हैं।

क्या इस तथ्य को नकारा जा सकता है कि ऐसे व्यक्तियों की लोकप्रियता बढ़ाने में राजनैतिक दलों का योगदान नहीं होता?

क्या अपनी लोकप्रियता के लिए ऐसे "संत" और वोटों के लिए हमारे राजनेता एक दूसरे के पूरक नहीं बन जाते?

नेताओं और संतों की यह जुगलबंदी हमारे समाज को क्या संदेश देती है?

इन समीकरणों के साथ भले ही धर्म का उपयोग करके राजनीति जीत जाती हो लेकिन नैतिकता हार जाती है।

डॉ नीलम महेंद्र

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