क्रांति दिवस:शहीदों को करता है ये शहर नमन,यहां खूब बंटा था खूनी पर्चा

Update:2016-05-09 13:45 IST

सहारनपुर: 1857 की क्रांति में सहारनपुर के भी बहुत से स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए थे। ब्रिटिश शासन काल में यहां की जनता ने बहुत अत्याचार सहे और अंग्रेजों ने उनकी व्यक्तिगत और सार्वजनिक संपत्ति को बलपूर्वक हड़प लिया था। जब यहां के लोगों ने इसका विरोध किया तो इससे गुस्साए अंग्रेजों ने कईयों के फांसी पर चढ़ा दिया। यहां की ऐसी तमाम यादों को जीवंत बनाए रखने की खातिर शहर के लोहा बाजार में शहीद स्मारक बना है जहां हर साल 10 मई को शहीदों को नमन किया जाता है।

ललिता-पन्ना शहीद स्मारक

शहर का ये हिस्सा उन शहीदों का गवाह रहा है, जिन्हें इस बाजार के बीचोंबीच तत्कालीन कोतवाली के ठीक सामने पीपल के वृक्ष पर अंग्रेजों ने फांसी के फंदे पर लटका दिया था। इसी वृक्ष को प्रतीक मानकर 10 मई 1957 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 100वीं जयंती पर शहीदों की स्मृति में यहां ललिता-पन्ना शहीद स्मारक बनाया गया था ताकि युवा पीढ़ी हर दौर में आजादी की लड़ाई का मूल्य समझ सके।

इसके अलावा सहारनपुर में आजादी के समय का विशेष महत्व रहा है। इनमें बाबा लालदास रोड स्थित फुलवारी आश्रम शहीद ए आजम भगत सिंह की अमर गाथा का साक्षी बना तो चकराता रोड स्थित तत्कालीन सेवादल मैदान में क्रांतिकारी खेलकूद आधारित गतिविधियों में व्यस्त रहते थे। जिससे आजादी के दीवानों की फौज तैयार की जा सके।

फुलवारी आश्रम की बड़ी विशेषता ये भी रही हैं कि उस दौर में शहीद ए आजम भगत सिंह दो रात रुके थे और अंग्रेजों को इसकी भनक तक नहीं लग सकी। वहीं, सहारनपुर के समीपवर्ती स्थलों में सरसावा स्थित स्वराज मंदिर में स्वतंत्रता सेनानियों की धरोहर संजोए रखने का सार्थक प्रयास किया गया है।

खूब बंटा था खूनी पर्चा

1857 के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी यादों के बीच मार्च 1928 में गणेशशंकर विद्यार्थी के आग्रह पर एक खूनी पर्चे की रचना हुई थी। पोस्टर के रूप में यह सहारनपुर, मेरठ और दिल्ली समेत देश भर के क्रांति केंद्रों में खूब बंटा। ब्रिटिश शासन अंत तक इसके रचयिता का पता न लगा सका। इसी लंबी रचना का एक अंश अमर भूमि से प्रकट हुआ ।

जब पड़े महापुरुषों के कदम

क्रांतिकारियों की महान गाथा की साक्षी इस सरजमीं को हर दौर में महापुरुषों ने नमन किया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी यहां 1928 में कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लेने आए थे तो आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहरलाल नेहरू जब यहां 1936 में आए तो उन्हें हिंदू कुमार सभा ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को नकारते हुए उन्हें न केवल भारत का राष्ट्रपति घोषित कर दिया, बल्कि उन्हें 101 रुपये नगद और चांदी की तश्तरी भेंट की थी।

संरक्षित हैं क्रांति नायक की यादें

आजादी की लड़ाई से जुड़ी पहलुओं की बात तब तक अधूरी ही रहेगी, जब तक क्रांति के अमर नायक शहीद ए आजम भगत सिंह के परिवार से इस धरती के नाते का जिक्र न किया जाए। यहां आज भी इस परिवार के सदस्यों को वे यादें कचोटती हैं, जो 83 साल पहले क्रांति के नायक भगत सिंह को फांसी के फंदे पर लटकाया गया था।

इस परिवार के सदस्य और शहीद ए आजम भगत सिंह के छोटे भाई स्वर्गीय कुलतार सिंह के पुत्र सरदार किरणजीत सिंह सिंधु को फख्र है कि वे उस महान शख्सियत के खानदान में जन्मे, जिसे इस देश ने अपने दिलों में सम्मान दिया। वे चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियां इसी के साथ अमर क्रांतिकारी बगत सिंह और उनकी शहादत को याद रखें।

हालांकि, हाल में हुए इस खुलासे को लेकर शहीद ए आजम का पूरा परिवार बहुत दुखी है, कि 86 साल पहले हुई ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जान सांडर्स की हत्या में नामजद न होने के बावजूद सरदार भगत सिंह को फांसी दे दी गई थी।

हर जगह जगी थी अलख

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में आसपास के गांवों, कस्बों के बाशिंदों ने भी अहम भूमिका निभाई। मसलन, थाना भवन के हाफिज जामिन शहीद, मेमार-ए-मुजाहिर की उपाधि से नवाजे गए। कैराना के मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी समेत देवबंद, गंगोह और सहारनपुर के अनेक गदर नायकों पर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। यही नहीं, 1857 से काफी पहले यानी, 1924 में भी इस क्षेत्र के गुर्जरों ने सर्वप्रथम कुंजा बहादुरपुर के ताल्लुकदार विजय सिंह और कल्याण सिंह उर्फ कलवा गूजर के नेतृत्व में सहारनपुर में जोरदार विद्रोह किए।

Tags:    

Similar News