लखनऊ: ‘अजी बड़ा लुत्फ था जब कुंवारे थे हम तुम, या फिर धीरे-धीरे कलाई लगे थामने, उन को अंगुली थमाना गजब हो गया! जैसी कव्वालियों की उन दिनों बड़ी धूम थी। उस किशोर उम्र में ज़फर गोरखपुरी की यह दोनों कव्वाली सुन जैसे नसें तडक़ उठती थीं, मन जैसे लहक उठता था।’ लेकिन ज़फर गोरखपुरी के साथ ऐसे अनुभव का नाता नई पीढ़ी से भी जुड़ा जब शाहरुख खान पर फिल्माया फिल्म बाजीगर का गीत ‘किताबें बहुत सी पढ़ीं होंगी तुमने’ गुनगुनाते हुए बड़ी हुई। 1985 की बात है।
बॉलीवुड फिल्म ‘नायाब’रिलीज हुई तो उसका एक गीत लोगों की जुबान पर चढ़ गया। ‘एक तरफ उसका घर, एक तरफ मयकदा...’ की गूंज देश भर में सुनाई दे रही थी और इसके साथ गोरखपुर के शायर की शोहरत भी फैल रही थी। इस गीत ने ज़$फर गोरखपुरी को वो मुकाम दिया, जिसके वह हकदार थे। इसके बाद उन्होंने फिल्मी दुनिया के लिए कई तराने गढ़े, जिन्हें लोगों ने सराहा और गुनगुनाया। ऐसे महान शायर जफर गोरखपुरी के व्यक्तित्व और कृतित्तव पर रोशनी डाल रहे हैं अपना भारत के संपादक विचार संजय तिवारी-
जन्म: 5 मई 1935, बेदौली बासगांव गोरखपुर
निधन: 29 जुलाई 2017, अंधेरी पश्चिम, मुंबई
जफऱ की एक और गजल लोगों में खूब चर्चित रही। पंकज उदास ने जब ‘एक कोने में गजल की महफिल, एक कोने में मयखाना हो...’ गाई तो गोरखपुर के शायर फिर पूरे देश की जुबान पर आ गए। अजय देवगन और काजोल अभिनीत गुंडाराज फिल्म में ज़फर गोरखपुरी का गीत ‘न जाने एक निगाह में...’ भी लोगों को खूब पसंद आया।
शहर के शायर दिलशाद गोरखपुरी बताते हैं कि उर्दू में शायरी के पांच संकलन समेत ज़फर गोरखपुरी ने अदबी साहित्य को कई बेमिसाल गजलें दीं। उनकी गजलों ने उन्हें फिल्मी दुनिया के मशहूर गीतकारों में शुमार कर दिया। गांव के छोटे से घर से निकलकर वह अपनी कलम के दम पर बॉलीवुड में मजबूत हस्ताक्षर बने। बॉलीवुड में उनके गीतों को इतना मान मिला कि फिर वह वहीं के होकर रह गए।
82 बरस की उम्र में लंबी बीमारी के बाद शायर ज़फर गोरखपुरी ने 29 जुलाई की रात मुंबई में अपने परिवार के बीच आखिरी सांस ली। गोरखपुर की सरजमीं पर पैदा ज़$फर गोरखपुरी की शायरी उन्हें लम्बे समय तक लोगों के दिल-दिमाग में जिंदा रखेगी। ज़फर गोरखपुरी को मुम्बई के चार बंगला अंधेरी पश्चिम के कब्रिस्तान में 30 जुलाई को दोपहर डेढ़ बजे सुपुर्द-ए-खाक किया गया।
उन्हें मिट्टी देने के लिए शायर सईद राही, इरफान जाफरी, हामिल इकबाल सिद्दीकी, सैय्यद रियाज, ओबैद आजम आजमी, अफसर दकनी, कलीम जिया, वकार कादरी, शेख अब्दुल्ला, देव मणि पाण्डेय समेत अन्य मौजूद रहे। वे अपने पीछे पुत्र अयाज गोरखपुरी और इंतेयाज गोरखपुरी को छोड़ गए हैं।
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तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बीच उनकी ख़ुशकिस्मती थी कि उन्हें फिराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी सरीखे शायरों को सुनने और उनसे अपने कलाम के लिए दाद हासिल करने का मौका मिला था। जफ़ऱ गोरखपुरी बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव में 5 मई 1935 को जन्मे। प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। मुम्बई वे मजदूरी करने गए थे। बताते है कि पढ़ाई लिखाई तो ज्यादा थी नहीं, घर चलाने के लिए पिता ने उन्हें मुंबई बुला लिया जहां उन्होंने मिट्टी तक ढोया। मजदूरी करते हुए पढ़ाई की। फिर मुम्बई नगर निगम के स्कूल में पढ़ाने भी लगे। शुरुआती दौर में परिवार बच्चे गांव में ही रहते थे।
सन 1952 में उन्होंने शायरी की शुरुआत की थी। सिर्फ 22 साल की उम्र में फिऱाक़ साहब के सामने गज़़ल पढ़ी, ‘मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहां मय बराबर बटे चारसू दोस्तो/चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों तोड़ दो, ऐसे जामो-सुबू दोस्तो। फिऱाक़ साहब ने दाद दी बल्कि एलान किया कि नौजवान बड़ा शायर बनेगा।
ज़फर गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। कवि देवमणि पाण्डेय अपने फेसबुक वाल पर लिखते हैं कि फिऱाक़ साहब ने उन्हें समझाया, ‘सच्चे फऩकारों का कोई संगठन नहीं होता। वाहवाही से बाहर निकलो।’नसीहत का असर हुआ, वे संजीदगी से शायरी में जुट गए।
ज़फर साहब जब गोरखपुर आते तो डा. अज़ीज अहमद को उनकी मेहमान नवाजी का जब-तब मौका मिलता। डा. अजीज अहमद कहते हैं कि जफऱ गोरखपुरी में न केवल विशिष्ट और आधुनिक अंदाजा था, बल्कि उर्दू गजल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। हरे भरे खेतों से निकल मुम्बई के कंकरीट के जंगलों में उन्होंने जिंदगी गुजारी लेकिन यहां आने के लिए तड़पते रहते थे। उन्हें हदय की बीमारी थी।
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हमने कोशिश की उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी उन्हें सम्मानित करे, उनकी आर्थिक मदद करे लेकिन हाकिम-ए-वक्त इर्द-गिर्द रहने वालों को ही मदद मिलती है। आवाम से जुड़ाव की ताजग़ी ने उनकी गज़़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया। एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया।
बाल साहित्य में भी योगदान
प्राइमरी विद्यालय में शिक्षक के रूप में उन्होंने बाल साहित्य को भी परियों और भूत प्रेत के जादूई एवं डरावने संसार से न केवल बाहर निकाला। बाल साहित्य को सच्चाई के धरातल पर खड़ा करके जीवंत, मानवीय एवं वैज्ञानिक बना दिया। उनकी रचनाएं महराष्ट्र के शैक्षिक पाठ्यक्रम में पहली से लेकर स्नातक तक के कोर्स में पढ़ाई जाती हैं। बच्चों के लिए उनकी दो किताबें कविता संग्रह ‘नाच री गुडिय़ा’ 1978 में प्रकाशित हुआ जबकि कहानियों का संग्रह ‘सच्चाइयां’ 1979 में आया।
उर्दू में पांच संकलन
ज़फर गोरखपुरी का पहला संकलन तेशा (1962), दूसरा वादिए-संग (1975), तीसरा गोखरु के फूल (1986), चौथा चिराग़े-चश्मे-तर (1987), पांचवां संकलन हलकी ठंडी ताज़ा हवा (2009) में प्रकाशित हुआ। हिंदी में उनकी गज़़लों का संकलन आर-पार का मंजऱ 1997 में प्रकाशित हुआ।
पुरस्कार एवं सम्मान
रचनात्मक उपलब्धियों के लिए जफ़ऱ गोरखपुरी को महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993 ), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ ) और युवा-चेतना सम्मान समिति गोरखपुर द्वारा फिऱाक़ सम्मान (1996) में मिला। 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा कर कई मुशायरों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया। महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का राज्य पुरस्कार (1993), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ) और युवा-चेतना गोरखपुर द्वारा फिऱाक़ सम्मान (1996)।
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अब के साल पूनम में, जब तू आएगी मिलने।
मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूं दीवार का अपनी।
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा।
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझको पाने के लिए।
देखें कऱीब से भी तो अच्छा दिखाई दे।
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है।
मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे।
ज़मीं, फिर दर्द का ये सायबां कोई नहीं देगा।
कौन याद आया ये महकारें कहां से आ गईं।
जिस्म छूती है जब आ आ के पवन बारिश में।
मसीहा उंगलियां तेरी...
क्या उम्मीद करे हम उन से जिनको वफ़ा मालूम नहीं।
जब मेरी याद सताए तो मुझे ख़त लिखना।
मिले किसी से नजऱ तो समझो गज़़ल हुई।
दिन को भी इतना अन्धेरा है मेरे कमरे में।
धूप क्या है और साया क्या है अब मालूम हुआ।
मजबूरी के मौसम में भी जीना पड़ता है।
मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई।
मौसम को इशारों से बुला क्यूं नहीं लेते।
हमेशा है वस्ल-ए-जुदाई का धन्धा।
अश्क-ए-ग़म आंख से बाहर भी।
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज।
जब इतनी जां से मोहब्बत बढ़ा।
जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना।
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीनी।
मेरा क़लम मेरे जज़्बात मांगने।
पल पल जीने की ख्वाहिश में।
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते।
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला।
तो फिर मैं क्या अगर अनफ़ास के।
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जफऱ की दो गज़लें
मिरा कलम मिरे जज़्बात मांगने वाले,
मुझे न मांग मिरा हाथ मांगने वाले।
ये लोग कैसे अचानक अमीर बन बैठे,
ये सब थे भीक मिरे साथ मांगने वाले।
तमाम गांव तिरे भोलपन पे हंसता है,
धुएं के अब्र से बरसात मांगने वाले।
नहीं है सहल उसे काट लेना आंखों में,
कुछ और मांग मिरी रात मांगने वाले।
कभी बसंत में प्यासी जड़ों की चीख़ भी सुन,
लुटे शजर से हरे पात मांगने वाले।
तू अपने दश्त में प्यासा मरे तो बेहतर है,
समुंदरों से इनायात मांगने वाले।
देखें कऱीब से भी तो अच्छा दिखाई दे,
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे।
अब भीक मांगने के तरीके बदल गए,
लाजिम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे।
नेज़े पे रख के और मिरा सर बुलंद कर,
दुनिया को इक चराग़ तो जलता दिखाई दे।
दिल में तिरे ख्याल की बनती है इक धनक,
सूरज सा आईने से गुजऱता दिखाई दे।
चल जिंदगी की जोत जगाए अजब नहीं,
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे।
क्या कम है कि वजूद के सन्नाटे में जफ़ऱ,
इक दर्द की सदा है कि जिंदा दिखाई दे।