मैं पिछले चार पांच दिन से काफी मोहपाश में फंसा हुआ था। एक तरफ मेरे बेटे की जिद तो दूसरी तरफ समाज का डर। लोग क्या कहेंगे? पर बात बेटे की थी जो महज पांच-छह साल का है। बेचारे को नहीं मालूम कि उसके छोटे भाई-बहन नहीं आ सकते। बस एक ही रट लगाए हुए है कि उसे भी बगल वाले छोटे बच्चे की तरह एक भाई चाहिए। मैंने उसको बोलने वाली गुडिय़ा लाकर दी, उसने तोड़ दी। उसका कहना है कि उसे हाथ-पैर चलाने वाला, रोने वाला, दूध पीने वाला मुन्ना चाहिए। अब मैं क्या करूं।
मैं और मेरी पत्नी दोनों ही उसे समझा-समझा कर हार चुके थे। ऐसा नहीं था कि हम लोग और बच्चे नहीं चाहते थे पर घर के माहौल को देखते हुए खासतौर से पत्नी की बीमारी के कारण हम दोनों ने डिसाइड किया था कि अंशु तो है ही। और बच्चे के बारे में सोचना ज्यादा जरूरी नहीं है।
कहने को तो हम लोग खुश थे, लेकिन पिछले दिनों अंशु जब बगल में बच्चे को खिलाने गया था तो उसने जिद पकड़ी ली कि उसे भी छोटा मुन्ना चाहिए। अंशु ऐसी जिद क्यों कर रहा है तो पता चला कि उसके दोस्त ने कह दिया कि अब वह अपने मुन्ने के साथ खेलेगा और अंशु से बात नहीं करेगा। लो भाई, अंशु ने तो जिद पकड़ ली, जो बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। हालांकि मैंने और मेरी पत्नी ने उस मसले पर गुपचुप तरीके से बातें की कि अब क्या करना है? तुरन्त किसी बच्चे को इस दुनिया में लाना तो नामुमकिन था, लेकिन एक तरीका था गोद लेना।
गोद लेना भी आसान न लग रहा था क्योंकि सामने घर वाले और उस पर से हमारी परदादी यानि कि मेरे पिता जी की दादी काफी पुराने ख्यालात की हैं। मैं अपनी मां और दादी को तो समझा सकता था लेकिन परदादी जी को! न बाबा न। उन्हें तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी नहीं समझा सकते थे क्योंकि एक बार उन्होंने जो बात कह दी तो वह पत्थर की लकीर होती थी। अंशु पूरे घर का लाडला होने के साथ-साथ हमारी परदादी जी की जान है।
हमारी परदादी जी सुबह होने के बाद सबसे पहले अंशु को आवाज देकर जगाती हैं और इतनी बूढ़ी होने के बावजूद स्कूल के लिए खुद ही तैयार करने में लग जाती हैं। इस बात पर हमारी धर्मपत्नी गुस्सा जाती तो मेरी मां और दादी जी उन्हें समझा देते हैं कि उनके पास और कोई काम तो है नहीं। उनका इसी में मन बहल जाता है तो उन्हें इस काम के लिए मना नहीं करना चाहिए। अब रही अंशु की जिद तो क्या करूं समझ में नहीं आ रहा था।
इस बात ने मुझे घर और ऑफिस दोनों जगह परेशान कर रखा था। आज मैंने निर्णय ले लिया था कि चाहे कुछ भी हो निष्कर्ष निकालकर रहूंगा। निष्कर्ष? किस बात का, अंशु की जिद या अपनी परदादी जी को मनाने का।
घर पहुंचते ही मैंने एक ऐसी भूमिका तैयार की कि जिसमें अपनी मां और दादी जी को शामिल कर लिया। चूंकि मां और दादी जी अंशु की जिद और हम दोनों की मजबूरियां समझती थीं। अब बात रही परदादी जी को मनाने की तो सबसे पहला काम कि घर में किस बात की चर्चा चले और थोड़ा सा कोहराम मचे। लेकिन बिना किसी वाद-विवाद के.....‘मां और दादी जी देखिए। देविका (धर्मपत्नी) फिर मां बनने को कह रही है और अंशु की बात को पूरा करने के लिए अपनी जिन्दगी दांव पर लगाना चाहती है। मैं इसे समझा रहा हूं कि अंशु की खुशी के लिए तुम हम लोगों को छोडऩे के लिए तैयार हो।’
इस पर दादी और मां ने देविका को समझाना शुरू किया कि बेटा अंशु का तो ख्याल करो। अंशु तो अभी बच्चा और उसकी जिद दिन-ब-दिन बढ़ती जाएगी तो उसकी सारी जिद पूरी करोगी क्या? वैसे भी अंशु की यह जिद ज्यादा दिन तक नहीं रहेगी। तुम अपनी जिन्दगी खतरे में मत डालो। इसी बीच मैंने एक तुरुप का इक्का फेंकते हुए कहा कि मां मैंने अंशु की जिद पूरी करने के लिए एक तरीका ढूंढा है। हमारे ऑफिस में चपरासी के तीन बच्चे हैं और चौथा बच्चा अभी दो-तीन दिन पहले हुआ है।
बेचारा काफी परेशान है कि वह उस बच्चे को कैसे पालेगा। इस पर हम ऑफिस वालों ने उसको काफी डांटा था कि इतनी सी कम तन्ख्वाह में ये बेहूदा हरकत कैसे करते चले आए। तब पता चला कि उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। फिलहाल जो हुआ सो हुआ। इस पर मैंने सोचा है कि क्यों न उसके ही बच्चे को गोद ले लिया जाए।’
इस बात को सुनते ही हमारी परदादी जी जिनको साफ सुनाई नहीं देता था, बड़ी तेजी से भागती हुई आंगन में आ पहुंची और बोलने लगीं कि कौन बच्चा गोद ले रहा है। हम लोगों को कोई बच्चा-वच्चा गोद लेने की जरूरत नहीं है। फिर क्या था, पूरे आंगन और घर में बच्चे को गोद लेने पर बहस चालू हो गई। एक पाले में मैं, मां और दादी जी तो दूसरे पाले में हमारी पत्नी और परदादी जी थीं। हम लोगों में बातें चल ही रही थी कि मेरे पिता और दादा जी भी आ टपके। रही सही कसर पूरी हो चुकी थी।
बेचारा अंशु सबकी बात सुन रहा था और टुकुर-टुकुर देख रहा था। काफी रात हो चली थी मगर कोई निष्कर्ष तो नहीं निकला। वैसे सबकी एक राय जरूर बन चुकी थी कि देविका को मां नहीं बनना चाहिए। बात जहां से चली थी वहीं पर आ टिकी कि अंशु को छोटा मुन्ना कैसे मिले? सभी लोग खा-पीकर सोने चले गये। मैंने लेटे-लेटे दूसरी योजना बनाई कि आगे क्या करना हैं। एक बात तो तय थी कि मैं अपने चपरासी के बच्चे को गोद लेना चाहता था। ये कैसे पूरा होगा? यह देखने की बात थी।
दूसरे दिन मैं अपने ऑफिस के समय से लगभग दो-तीन घंटे बाद घर पहुंचा और उस पर से मुंह लटकाए हुए। चूंकि मेरा मुंह लटकना और देर से आना मेरे नाटक में शामिल था तो उन लोगों के प्रश्न ने मुझे विचलित नहीं किया। मैंने उन लोगों के सामने आधा सच और आधी कहानी सुनानी चालू की......। मां आज तो हम लोगों ने और भगवान ने उस बच्चे को बचा लिया, लेकिन आगे उस बच्चे को कौन बचाएगा। अरे! क्या हुआ? कुछ तो बतायेगा...।
मैंने पूरी कहानी सुनानी शुरू की कि उस बच्चे को कुपोषण हो गया है। बच्चे की मां जो पहले से ही तीन बच्चों की मां थी और गरीबी के कारण उस बच्चे को पूरी तरह से खुराक नहीं मिली थी। इसी कारण बच्चे को खून और महंगी दवाइयां चढ़ाई जानी थी।
चूंकि चपरासी के पास पैसे तो थे नहीं तो हम लोगों ने मिलकर पैसे इकट्ठे करके उस बच्चे को बचाया। हम लोगों को डॉक्टर ने बताया कि अगर उसे सही खुराक न मिली तो उसका बच्चा मुश्किल से दो या तीन महीने तक ही जीवित बचेगा। बस यही बात हम लोगों को परेशान कर रही थी। आप लोगों को मालूम है कि बच्चा काफी गोरा और सुन्दर भी है पर क्या होगा आगे भगवान ही जाने........।
मेरी पूरी बात या कहानी परदादी जी ध्यानपूर्वक सुन रही थीं। हम लोग खा-पीकर सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि परदादी जी ने हमारे दादा जी और पिता जी को बुलवाया और करीब आधे घंटे बाद पिता जी ने घोषणा कि कल उस बच्चे को गोद लेने चलेंगे जिसमें सबसे आगे हमारी परदादी जी होंगी। मैंने चैन की सांस ली और मन में सोचा कि अंशु की जिद भी पूरी हुई और देविका की भी जिन्दगी को कोई खतरा न हुआ और उस बच्चे का भविष्य सुधर जाएगा। इसी को कहते हैं कि अंत भला तो सब भला।
- राजकमल श्रीवास्तव