आज की इन्सटेन्ट दुनिया में, काच से नाजुक रिश्ते के टूटने पर फिर समटने में हाथ जख्मी कौन करे, यह सोच फिर नया आइना ले आते है लोग। कहानी की विधा इसी नाजुक संवेदना को आखर में उकेरती है। ऐसी ही आखरशिल्पी कथाकार सलोनी यादव को अभी हाल ही में मध्य प्रदेश में कथा कृति पुरस्कार मिला है। वैसे तो सलोनी की कई कहानियां पुरस्कृत हो चुकी हैं। सलोनी की हर कहानी एक मुद्दा उठाती है इसलिए चर्चा पाती है। एक शहीद सिपाही की विधवा की दूसरी शादी और उसके वृद्ध माता-पिता की संवेदना को उकेरती है यह पुरस्कृत कहानी-
यह क्या खेत में निरे कद्दू बोये और तु ये काहे उठा लाया रे।’ दादी के पूछने पर ध्रुव बोला- रख ले अम्मा इनके बदले में बड़ी दुआएं कमाई है। गांव आ रहा था तो, रास्ते में एक बूढ़े बाबा बेच रहे थे चेहरे पर अंगौछा बाधे थे पर भूख और लाचारी फिर भी दिख रही थी जिस गांव में खेतों में हर तरफ कद्दू लगे हो वहां पर उनसे कौन खरीदता। शाम को पड़ोस में रहने वाले पुनिया बाबा को आते देख उसने गोड़ लागा तो कांपते हाथों और होठों ने जाने कितने अशीष दे दिये। वह पिताजी से बोले, एक पाव गुड़ दे दो और पिछला उधारी काट लो।
पिताजी के इशारे पर वह बाबा को गुड़ देकर जैसे ही नोट लिया तो चौका,यह तो पेन्सिल से उसके नाम का पहला अक्षर लिखा वही नोट है जो उसने सुबह कद्दू बेचने वाले बाबा को दिया था। बाबा इस हालत में पर इनके बेटे मोहन चाचा तो फौज में है, उसने सुबह की बात किसी से नहीं कही ध्रुव के पूछने पर पिताजी ने कहा, है नहीं थे। मोहन कारगिल की जंग में शहीद हो गया। काका ने जमीन बेच कर उसकी पढाई,नौकरी में पैसों इन्तजाम किया था। बुढ़ापे में बेटे के कन्धे तर जाएंगे। पर मोहन का जाना उनके ही कन्धे तोड़ गया।
उसकी शादी को एक ही साल हुआ था, गोद में कुछ था भी नहीं, तो काका-काकी ने मन बड़ा करके, मोहन के फौजी दोस्त से बहू को बेटी बना कर उसका दोबारा ब्याह करवा दिया। पर वह इतनी एहसान फरामोश निकली कि मोहन की पेन्शन, सरकार से मिले पेट्रोल पंप, सरकारी जमीन सब उसके नाम थी,ले गयी। आज १८ साल हो गया बेटा पर वह पलट के न आयी।
ध्रुव महसूस कर रहा था कि बाबा शायद दिन पर दिन टूट रहे हैं। उसे समझ भी आता कि बाबा के लिए वह क्या करे? बाबा न चाहते तो वह क्या कर लेती? जमीन, पेट्रोल पम्प और मोहन का सारा धन बाबा के पास ही रहता। बाबा को आज की तरह मोहताज नहीं होना पड़ता। लेकिन वह तो चली गयी और चली ही गयी। जाने के बाद यह भी जानने की कभी कोशिश नहीं किया की जिस ससुर ने पिता बनकर उसे कन्यादान देकर विदा किया उसके प्रति भी उसका कोई कत्र्तव्य होगा। कभी तो उनके हाल पूछ लेती ?
सोचते-सोचते ध्रुव को लगा की उसका सर फट जायेगा। सोचने लगा, ऐसा कैसे हो सकता है? बाबा ने तो बहुत बड़े दिल से उसे शादी का तोहफा दिया लेकिन उसने बाबा को इस हाल में छोड़ दिया? रात को छत पर लेटे ध्रुव की आंखों के सामने उसके बचपन के वो दृश्य घूम रहे थे जब सारे गांव में पुनिया बाबा की मेहनत, ईमानदारी, खेती से सम्बंधित उनके ज्ञान और जिन्दादिली मशहूर थी। आसपास के गांवों के लोग उनकी सलाह से खेती करते और भरपूर उपज होती महाकवि घाघ की न जाने कितनी कहावते उन्हें याद थी। दिन, नक्षत्र मौसम देख कर जिसे जो भी उपज बोने के लिए कह देते थे मजाल है कि किसी को कोई नुकसान हो जाए। इतना गहरा ज्ञान था, और आज किसानों के खेतों में बेकार पड़े साग सब्जी बेच कर जी रहे है।
ऐसा नहीं होगा, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा, उसकी आंखों से नींद कोसों दूर थी पूरी रात करवट बदलते ही बीती। सुबह मां से दो लोगों के लिए पराठे बनवा के वह सीधे पुनिया बाबा के घर पहुंचा बाबा-दादी के गोड़ लग के, हाथ धोया और बड़े अधिकार से रसोई से दो थाली लाके दोनों के सामने पराठे सब्जी परोस दी। इ का बचवा दोनों की आंखों से गंगा-जमुना बहने लगी। उनको अपने हाथों से कौर खिलाते हुए बोला, कुछ नहीं, ब्याज दे रहा हूं जमा कर रहा हूं। बचपन में आप हम सब बच्चों को चवन्नी देते थे और कहते थे कि तुम लोगों के पास जमा कर रहा हूं बुढापे में लूगा। फिर मैं आपको खिलाऊंगा तभी तो मेरे पोते-नाती भी मेरा ख्याल रखेंगे।
बस अब आसू पोछ दे, बाबा आप तो कृषि ज्ञान का भण्डार हो मेरा एक मित्र है मेरठ का नितिन काजला पहले फार्मा कंपनी में काम करता था पर अब किसान बन अपने साथियो के साथ मिलकर सारे देश मे जैविक खेती की अलख जगा रहा है। उसकी संस्था साकेत फेसबुक, व्हाट्सऐप और प्रशिक्षण देकर किसानों को रसायनिक खेती के दुष्चक्र से बाहर निकालने में लगे हुए है। अभी फोन मिला के आपसे बात करवाता हूं। फिर जब नितिन ने बाबा से बहुत लम्बी बात की। बाबा उसे बताते रहे, वह सुनाता रहा। कैसे गांव के गोयड़ा वाले कोला में वह सब्जियां उगाया करते थे। फागुन बीतते ही बैसाखी नेनुआ, लौकी, कद्दू, भतुआ, तरोई, लौकी सब के बीज गिरा देते थे। बैसाख शुरू होते ही इस सभी का झेमड़ा लग जाता था और इतने फल आने लगते कि गांव जवार खाकर अघा जाता था। चैत के महीने में इन्हीं सब्जियों के बीज फिर बोते जो जेठ में उगते और सावन भर फल देते थे। बाबा बोलते जा रहे थे, नितिन सब सुनता जा रहा था।
बाबा आज पूरे रौ में थे। वह बता रहे थे कि बिना रासायनिक खाद के ही वे ये सब्जियां उगाते थे और खूब पैदावार होती थी। बाबा अपने जमाने की हर उस तकनीक को बता चुके, जिसका इस्तेमाल उन्होंने किया था। यह किसी नौजवान के लिए चौकाने वाली बात थी कि बीस पचीस साल पहले कोई किसान ऐसा पैदावार करता था। नितिन का चेहरा तो नहीं दिख रहा था, पर ऐसा लगा की उसे शायद कोई बहुत बड़ी धरोहर मिल गयी हो। जब बाबा की बातें खत्म हो गयी तो वह उधर से बोला, बाबा आपके पारम्परिक ज्ञान का लाभ तो पूरे देश को चाहिए। नितिन और बाबा के बीच फिर संवाद का सिलसिला चल पड़ा। वह प्राय: उससे बात किया करते थे। नितिन ने उनसे शायद ऐसा कुछ जरूर कहा होगा जिसे सुनकर न जाने कितने सालो बाद बाबा की आंखों में खुशी और चेहरे पर आत्मविश्वास लौट आया था।