यातना से मुक्ति कब तक: ‘मार के आगे भूत भी नाचता है’....

Update:2018-01-27 16:23 IST

डॉ. रविशंकर पाण्डेय

देहात में एक कहावत है कि ‘मार के आगे भूत भी नाचता है’ इसका एक जीवन्त उदाहरण तब देखने को मिला जब हाल में रेयान स्कूल हरियाणा में प्राथमिक कक्षा के छात्र अनिरुद्ध की हत्या में स्थानीय पुलिस ने वहां के एक कर्मचारी अशोक कुमार को असहनीय यातनाएं देकर हत्या का आरोप अपने सर लेने की हां करा ली थी। मरता क्या करता। आखिर वह ठहरा हांड़ मांस का एक आम और औसत भारतीय नागरिक। वास्तव में भारतीय पुलिस के पास ‘यातना’ नामक एक ऐसा परंपरागत हथियार है जिसके इस्तेमाल से वह किसी व्यक्ति के मुंह से अपने मतलब की किसी भी बात के लिए ‘हां’ करा सकती है। यातना का यह हथियार भारत में पुलिस ने अंग्रेजों से प्राप्त किया है। भारतीय जनता पार्टी ने भी इस हथियार को शांति व सार्वजनिक विधि व्यवस्था बनाए रखने के लिए चुपचाप स्वीकार कर लिया है।

प्रशासन में किसी भी आपराधिक कृत्य के अनुसंधान में भारतीय पुलिस इस अमोघ अस्त्र का इस्तेमाल स्वतंत्रता के बाद भी अभी तक बिना किसी हिचकिचाहट के करती चली आ रही है। किन्तु एक सभ्य समाज व अपने को विश्व के सबसे बड़े लोकतंात्रिक देश का तमगा देने वाले भारत के ऊपर बाहर व भीतर से जबरदस्त दबाव है कि वह अब अपने ही नागरिकों के विरूद्ध ऐसी अमानवीय यातना को रोकने संबंधी कानून बनाये। देर आए, दुरुस्त आए की तर्ज पर ऐसा एक बिल संसद में पेश करने हेतु अब सरकार वर्षों टालमटोल के बाद तैयार दिखती है। इस बिल में किसी अपराध की जांच के सिलसिले में पूछताछ के दौरान यातना देने वाले लोक सेवकों के विरूद्ध पहली बार सजा का प्रावधान होने जा रहा है।

वास्तव में सरकारी एजेंसियों द्वारा हो रही ऐसी अमानवीय यातना व उत्पीडऩ के संबंध में वर्ष १९८७ में संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग के तत्वाधान में सम्पन्न हुए सम्मेलन में यातना के विरुद्ध संधि (Commission against torture) अस्तित्व में आई। दस वर्ष पश्चात भारत इसका एक हस्ताक्षरी देश तो बना किन्तु बार-बार आयोग के आग्रह के बावजूद इस संधि के अनुसार भारत अभी तक यातना के विरूद्ध अपने यहां के किसी तरह का कोई कानून नहीं बना पाया है।

वर्ष २०११ में संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग का एक सदस्य बनने की मंशा से प्रेरित होकर भारत ने उस समय आयोग के समक्ष ‘संकल्प पत्र’ भी प्रस्तुत किया था कि वह अपने मानवाधिकार आयोग संस्था का अनवरत समर्थक रहा है तथा वह संस्था के अनुसार अपने यहां कानून में यथाआवश्यक संशोधन करने को तैयार है। किन्तु बार-बार अन्तर राष्ट्रीय संस्थाओं की टोका-टाकी के बावजूद भी वर्ष १९९७ से लेकर अब तक ‘संधि’ के मार्गदर्शक सिद्धांतों के अनुसार सरकारी यातना को समाप्त करने संबंधी कोई कानून लाने में भारत असफल रहा है। वहीं दूसरी ओर देश के विभिन्न राज्यों में पुलिस अभिरक्षा में आम नागरिकों मृत्यु के लगातार बढ़ते मामलों से चिंतित होकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी शकीला अब्दुल गफ्फार खां बनाम हरियाणा सरकार (२००३) तथा मुंशी सिंह गौतम बनाम मध्य प्रदेश सरकार (२००४) जैसी सूचिकाओं में कड़े शब्दों में पुलिसिया यातनाओं की निंदा करते हुए शीघ्र इन्हें रोकने हेतु प्रभावी कानून बनाने के निर्देश दिये हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त दबावों के चलते आखिरकार भारत सरकार द्वारा यातना संबंधी रोकधाम बिल २०१० का प्रारूप तैयार कराया गया, जो इस दिशा में एक सकारात्मक कदम कहा जा सकता है। इस बिल में भारतीय पुलिस द्वारा आपराधिक कृत्य के आरोपियों के विरूद्ध आये दिन की जाने वाली मारपीट के साथ अन्य सभी शारीरिक व मानसिक यातनाएं भी शामिल की गई हैं जिनमें व्यक्ति को भूखा रखना, बलात खाना खिलाना, नींद लेने से रोकना, शोर बम का इस्तेमाल, बिजली के झटके देना, सिगरेट से दागना, बाथरूम में बंद रखना तथा अन्य भयावह शारीरिक व मानसिक यातनाएं सम्मिलित हैं।

इस प्रस्तावित बिल को उसी समय लोकसभा की एक विशेषज्ञ समिति को सौंप दिया गया था। इस बिल के पक्ष में तत्समय कई राज्य सरकारों व केन्द्र शासित प्रदेशों ने भी अपना समर्थन व्यक्त किया था किन्तु अफसोस कि तत्समय यह बिल कानून का रूप नहीं ले सका। केन्द्र सरकार के इस टालू रवैये से क्षुब्ध होकर सर्वोच्च न्यायालय के कुछ वरिष्ठï अधिवक्ताओं द्वारा इस पर वर्ष २०१६ में एक पी.आई.एल. भी दाखिल सर्वोच्च हुई है। जिस पर अपना पक्ष रखते हुए सरकार ने न्यायालय को यह सूचित किया है कि अन्तरराष्ट्रीय संधि (कैट) के अनुसार संधोधित प्रस्ताव का प्रारूप भारतीय विधि आयोग को अभिमत हेतु फिर से भेजा गया है। आयोग की आख्या प्राप्त होने पर तदनुसार इस पर आवश्यक कार्यवाही की जायेगी। अब भारतीय विधि आयोग ने भी विगत अक्टूबर में अपनी बहुप्रतीक्षित अस्सी पेज की रिपोर्ट भेज दी है तथा सरकारी प्रस्ताव में कुछ संधोधन की आवश्यकता बताते हुए इसे तुरन्त लोकसभा में पेश करने हेतु अपनी संस्तुति भी की है।

विधि आयोग ने अपनी प्रेषित रिपोर्ट में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-२१ में व्यक्ति के जीवन व स्वतंत्रता के प्रति सुरक्षा प्रदान की गयी है तथा अनुच्छेद -२०(३) में स्वयं उसे, उसके हितों के विरुद्ध कार्य करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थ्तिि में सरकार का यह एक वैधानिक दायित्व है कि वह यह कानून पास कराकर शीघ्र अमल में लाये। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कुछ बिन्दुओं पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि वर्ष २०१० के प्रस्तावित बिल में ‘यातना’ की परिभाषा अधिक व्यापक बनाते हुए उसमें लिंग, धर्म, जाति, सम्प्रदाय तथा अन्य किसी आधार पर भेदभाव को भी शामिल किया गया था, जो नये मसौदे में नहीं है।

इसी प्रकार लोक सेवक की परिभाषा को भी सीमित करते हुए आदेश देने वाले शीर्षक व वरिष्ठ अधिकारियों को बचाने की कोशिश की गयी है, जो उचित नहीं है। इसे पूर्वत वर्ष २०१० के मसौदे के अनुसार ही होना चाहिए। इसी प्रकार नये प्रस्तुत मसौदे में यातना के विरुद्ध पीडि़त व्यक्ति की शिकायत प्रस्तुत करने के लिए समय सीमा की अवधि दो साल से घटाकर केवल छ: माह कर दी गई है, जो पर्याप्त नहीं है। बहरहाल भारत के सम्पूर्ण नागरिकों के हित में ही होगा यदि शीघ्रातिशीघ्र यह बिल लोकसभा में पेश होकर एक कानून का रूप ले लेता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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