24 मार्च विश्व टीबी दिवस : भारत के माथे का बदनुमा दाग, चिंताजनक है रोगियों की संख्या
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में हर साल टीबी के करीब 22 लाख नए मामले सामने आते हैं और इस बीमारी से करीब 2.20 लाख लोगों की मौत हो जाती है। पिछले कई सालों में दर में गिरावट आ रही थी पर 2015 में भारत में टीबी दर और मृत्यु दर बढ़ गयी।
लखनऊ: देश में कई दशकों से क्षय रोग उन्मूलन कार्य प्रगति पर है। लगभग हर जिले में रोग की जांच की अत्याधुनिक विधि वाली जीन-एक्स्पर्ट मॉलीक्यूलर जांच उपलब्ध है जो मात्र दो घंटे के भीतर टीबी की पक्की जांच करने के साथ ही दवा प्रतिरोधक टीबी की भी जानकारी दे देती है।
क्षय रोग की रोकथाम के लिए देश के सरकारी चिकित्सा केंद्रो में पांच लाख से अधिक डॉट्स सेवा केंद्र हैं और लाखों की संख्या में डॉट्स स्वास्थ्यकर्मी भी कार्यरत हैं जहां सभी जांच और इलाज निःशुल्क किया जाता है।
भारत की हालत चिंताजनक
मगर, खेद का विषय है कि जांच व चिकित्सा सुविधा के इतने व्यापक नेटवर्क के बावजूद अन्य देशों की तुलना में भारत में टीबी के रोगियों संख्या चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में दुनियाभर में ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) के एक करोड़ से ज्यादा नए मामले आए थे।
दुनियाभर में टीबी से मौत के कुल मामलों में से 60 प्रतिशत केवल छह देशों में हैं जिनमें भारत सबसे ऊपर है। उसके बाद इंडोनेशिया, चीन, नाइजीरिया, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका का स्थान आता है। गौर करने वाला तथ्य यह है कि जहां एक ओर दुनिया के अधिकांश देशों में टीबी दर में गिरावट आयी वही भारत में पिछले साल न सिर्फ टीबी के नये रोगी बढ़ गए बल्कि टीबी से होने वाली मृत्यु दर भी।
आज दुनिया में सबसे अधिक टीबी के नए संक्रमण हमारे देश में हैं। विश्व में सबसे अधिक दवा प्रतिरोधक टीबी के मरीज भी भारत में ही है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसका मूल कारण है जागरूकता का अभाव। तपेदिक यानी क्षयरोग की बीमारी बच्चों पर भी व्यापक प्रभाव डालती है।
मौत का कारण
केजीएमयू के वरिष्ठ चिकित्सक डा. सूर्यकांत के अनुसार दुनियाभर में बीमारियों से मौत के दस शीर्ष कारणों में टीबी प्रमुख कारण है और भारत में इस बीमारी के करीब 10 प्रतिशत मामले बच्चों में पाये जाते हैं। उन्होंने पांच साल से कम उम्र के बच्चों में टीबी के मामले सामने आने पर चिंता जताते हुए कहा कि इसमें सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है जागरूकता की कमी, रोग की उचित पहचान न होना और उपचार की कमी।
गौरतलब है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के लोग भी बच्चों में टीबी के मामलों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते जिसकी वजह इसके निदान और उपचार में आने वाली कठिनाइयां हैं।
यही नहीं, मां के गर्भ से ही बच्चे को टीबी होने के मामले भी बड़ी संख्या में सामने आये हैं। उन्होंने कहा कि कई लोग नहीं जानते कि टीबी किसी भी अंग में हो सकती है और इसका संक्रमण कहीं से भी लग सकता है।
बढ़ गई दर
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में हर साल टीबी के करीब 22 लाख नए मामले सामने आते हैं और इस बीमारी से करीब 2.20 लाख लोगों की मौत हो जाती है। स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार हालांकि पिछले कई सालों में निरंतर टीबी दर में गिरावट आ रही थी पर 2015 में भारत में न केवल टीबी दर बढ़ गयी बल्कि टीबी मृत्यु दर में भी अचानक बढ़ोतरी हो गयी।
इस बाबत एक बेहद जरूरी सवाल यह है कि क्या टीबी का इलाज असरकारी दवाओं से हो रहा है? चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार कई बार टीबी दवाओं के दुरुपयोग के कारण भी दवा प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है और दवाएं कारगर नहीं रहतीं। दवाओं के अनुचित उपयोग के कारण अनेक लोग दवा प्रतिरोधकता से जूझ रहे हैं।
ऐसी स्थिति में बेहद जरूरी है कि जब किसी व्यक्ति की टीबी की पक्की जांच हो तो यह भी जांच भी जरूर हो कि किन दवाओं से उस व्यक्ति को दवा प्रतिरोधकता है और कौन सी दवाएं उस पर असर करेंगी। यह जाने बिना कि कौन सी दवाएँ कारगर होंगी, इलाज आरम्भ करना अंधेरे में तीर चलाने के समान है आैर इसके विभिन्न दुष्परिणाम भी रोगी को झेलने पड़ सकते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति
गौरतलब हो कि भारत सरकार ने गत वर्ष 2016 विश्व टीबी दिवस पर देश के लगभग हर जिले में कम-से-कम एक अति-आधुनिक मालिक्युलर जाँच विधि (जीन एक्स्पर्ट) लगवा दी थी। इस जीन एक्स्पर्ट मशीन से 2 घंटे के भीतर टीबी की पक्की जाँच और दवा प्रतिरोधक टीबी की भी जानकारी प्राप्त होती है ताकि बिना विलम्ब असरकारी इलाज आरम्भ किया जा सके। इसके बावजूद यदि हम उसका इस्तेमाल प्रारम्भिक टीबी जांच और प्रतिरोधकता की जानकारी लेने में न करें तो यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
भारत सरकार के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत टीबी की प्रारम्भिक पक्की जांच माइक्रोस्कोप से ही होती है। इससे दवा प्रतिरोधकता की जानकारी नहीं मिलती और मौजूदा क्षय उन्मूलन कार्यक्रम में दवा प्रतिरोधकता की जांच तब होती है जब महीनों इलाज के बाद भी रोगी ठीक नहीं होता। इसीलिए इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टीबी एंड लंग डीजीस और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दवा प्रतिरोधक टीबी के नौ माह की अवधि के नवीनतम इलाज का शोध रिसर्च पारित की है जिसे भारत में बिना विलम्ब उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के निदेशक डॉ मारिओ रविग्लिओने के मुताबिक टीबी उन्मूलन का स्वप्न साकार करने के लिए सभी देशों के स्वास्थ्य मंत्रालय की सक्रिय सहभागिता जरूरी है। इसी विचार को अमली जामा पहनाने की मंशा से नवम्बर 2017 में, मास्को रूस में, वैश्विक मंत्रियों केसम्मलेन का आयोजन किया जाएगा। डा. मारियो के अनुसार टीबी के इलाज में यह तथ्य ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि सिर्फ लक्षण देख कर टीबी का इलाज आरंभ कर देना चिकित्सकीय रूप से अनुचित है।
लाभ नहीं लेते लोग
भारत के हर जिले में अति-आधुनिक जीन एक्सपर्ट मॉलिक्यूलर जांच सरकारी अस्पताल में निःशुल्क उपलब्ध है। भारत के हर प्रदेश में बड़ी चिकित्सकीय प्रयोगशाला में अति-आधुनिक जांचें जैसे कि सॉलिड कल्चर, लिक्विड कल्चर, लाइन प्रोब एस्से (एलपीए) आदि भी उपलब्ध हैं। अब बिना पक्की जांच के टीबी का इलाज शु डिग्री करना सही नहीं है। सभी निजी और सरकारी स्वास्थ्यकर्मियों को यह सुनिश्चित करनी चाहिए कि टीबी की पक्की और निःशुल्क जांच के पश्चात ही टीबी का इलाज प्रारंभ किया जाए।
दक्षिण अफ्रीका में शोध से हाल ही में यह ज्ञात हुआ कि 69 प्रतिशत अति-दवा प्रतिरोधक टीबी लोगों को असंतोषजनक संक्रमण नियंत्रण के कारण किसी अन्य रोगी से संक्रमित होकर हुई। इस शोध के पहले हम सब यही मानते थे कि अधिकांश अति-दवा प्रतिरोधक टीबी, दवाओं के दुरुपयोग और अनुचित इस्तेमाल से उत्पन्न होती है।
यह सही है पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि यदि संक्रमण नियंत्रण संतोषजनक हो तो 69 प्रतिशत अति-दवा प्रतिरोधक टीबी को फैलने से रोकना सम्भव है। बाकी के 31 प्रतिशत अति-दवा प्रतिरोधक टीबी को भी रोकना सम्भव है यदि दवाओं का दुरुपयोग न हो और अनुचित इस्तेमाल न हो।
टीबी मुक्त हो देश
भारत को टीबी-मुक्त बनाने से जुड़े प्रोग्राम के ब्रंाड एमबेस्डर अमिताभ बच्चन के मुताबिक भारत सरकार के नेतृत्व में टीबी को खत्म करने की लड़ाई में हम में से प्रत्येक की महत्वपूर्ण भूमिका है। साथ-साथ काम कर और सम्मिलित क्षमताओं का इस्तेमाल करते हुए हम यह लड़ाई जीत सकते है।
उनका कहना है कि टीबी के मरीजों को लेकर गलत नज़रिया और भेदभाव कहीं भी हो सकता है- कार्यस्थल पर, स्वास्थ्य केंद्र पर, समुदाय में और यहां तक कि अपने घरों में ही। भेदभाव का भय लोगों को समय पर मदद लेने से रोकता है, जिससे बीमारी का इलाज करना मुश्किल हो जाता है। उन्होंने कहा कि मैं खुद टीबी का मरीज था, इसलिए मेरा इस अभियान से गहरा और ज़्यादा सीधा नाता है।
पूनम नेगी