जनसंघ के जमाने में आज की भारतीय जनता पार्टी पर यह तंज कसा जाता था कि यह पार्टी विपक्ष की है। तब की सत्ताधारी कांग्रेस यह कहने में कोई गुरेज नहीं करती थी कि सत्ता चलाना खेल नहीं है और इस खेल की वह इकलौती खिलाड़ी है। जनसंघ-भाजपा को यह आता ही नहीं है। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में लगातार 6 साल केंद्र में सरकार रही। बावजूद इसके पार्टी इस पहचान को उतार फेंकने में कामयाब नहीं हुई। क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी कई दलों की बैसाखी सरकार के सर्वेसर्वा थे। उस समय हर दल में सत्ता चलाने के खेल में बाजी मारने की होड़ लगी थी। अटल बिहारी वाजपेयी की मजबूरी थी कि वे कोई दावा किए बिना इस होड़ में सबको जीतने देते। उन्होंने ऐसा ही किया। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने कांग्रेस के उन दिनों के तंज को ठीक उलट कर रख दिया है। यही वजह है कि अकेले केंद्र की सरकार के बलबूते पर वह हिंदी पट्टी की पार्टी की मुहर से बाहर आ गयी।
1993 में कांग्रेस और सहयोगी दलों के पास 18 राज्यों में सरकार थी। लेकिन आज अकेले भाजपा की 15 राज्यों में सरकार है और सहयोगियों के साथ उसके पास 20 राज्य हैं। भाजपा गठबंधन यानी एनडीए देश की 67.85 फीसदी आबादी को सरकार दे रही है। जबकि कांग्रेस नीत यूपीए की पहुंच सिमट कर 7.78 फीसदी हो गयी है। नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्तारुढ होने के बाद भाजपा को केवल दिल्ली, बिहार और पंजाब में हार का सामना करना पड़ा है। बिहार में भी उसने हारी हुई बाजी जीत में पलट दी है। यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने 1984 में लोकसभा में केवल दो सीट जीतने वाली पार्टी को यहां पहुंचा दिया है। पूर्वोत्तर के 7 राज्यों में से पांच में भाजपा की सरकार है।
त्रिपुरा में तो भाजपा ने शून्य से शिखर तक की यात्रा तय कर ली है। यहां उसका ‘चलो पल्टाई’ (चलो बदलें) इतना कामयाब रहा कि गठबंधन के साथ उसने दो तिहाई से ज्यादा का बहुमत हासिल कर लिया। 1.5 फीसदी वोट से 45 फीसदी वोट तक की यात्रा पूरी की है। अगर त्रिपुरा की बात की जाय तो यहां पर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की भी अहम भूमा है। यहां पर उनके नाथ समुदाय के प्रभाव की सात सीटें थीं जिसमें 5 सीटों पर भाजपा को मिली हैं। सात जगहों पर योगी आदित्यनाथ ने रैलियां भी की थीं।
पूर्वोत्तर में भाजपा के प्रचार और प्रसार का श्रेय पार्टी के नेताओँ और कार्यकर्ताओं को जाना रस्म है। हकीकत यह है कि इसका सेहरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माथे पर बांधा जाना चाहिए। संघ ने भाजपा को अपने कंधे पर उठा कर पूर्वोत्तर में अपने सपने पूरे किए हैं। 40 साल से पूर्वोत्तर में संघ के लोग निरंतर ओवरटाइम कर रहे है।
हाल मे दिवंगत हुए शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने तकरीबन 30 साल पहले पूर्वोत्तर में धर्मांतरण में जुटी मिशनरियों को जवाब देने के लिए घर वापसी शुरु कराई थी। शंकराचार्य इसे लंबा नहीं चला सके। कांग्रेस इसे लपक नहीं सकी क्योंकि उसकी धर्मांतरण के लिए बड़ा स्पेस है। लेकिन आरएसएस ने इससे प्रेरणा ली और उसके लोग वहां सक्रिय हो गये। वे मौन होकर काम कर रहे थे। आदिवासियों के बीच संघ ने बेहद काम किया। उन्हें सुरक्षा, संरक्षा और सम्मान दिलाया।
डाक्टर लोहिया के सहयोगी रहे मामा बालेश्वर दयाल ने बस्तर के आदिवासी इलाके में बहुत काम किया था। संघ ने इससे भी ज्यादा सघन और संपर्क वाला काम किया है। तकरीबन दो दर्जन कार्यकर्ताओं की शहादत का सीधा रिश्ता संघ से है। पूर्वोत्तर में भाजपा के लिए संघ ने अपने प्रचारक सुनील देवधर को लगाया था। देवधर मराठी मानुस हैं। वे पिछले पांच साल से पूर्वोत्तर में पार्टी का काडर मजबूत कर रहे थे। पूर्वोत्तर में काम करने के लिए उन्होंने स्थानीय भाषा सीखी। जब वहां के लोगों से उनकी जनजातीय भाषा जैसे खासी-गारो और बांग्ला मे बात करने लगे तो उनका जुड़ाव स्वाभाविक हो गया। उन्होंने दूसरे दलों में सेंधमारी की। इस लड़ाई में वैचारिकता के आभाव को नरेंद्र मोदी ने पूरा किया। लाल किले को ध्वस्त करना, कांग्रेस मुक्त भारत बनाने से ज्यादा कठिन काम था। संघ के संकल्प के संदेश पढ़े जाएं तो अमित शाह की केरल विजय के उद्घोष को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। केरल और त्रिपुरा में वामपंथी सरकार होने के साथ-साथ रबर उत्पादन की भी समानता है। त्रिपुरा रबर उत्पादन में केरल के बाद दूसरा राज्य है। त्रिपुरा की विजय ममता के लिए भी खतरे की घंटी है। त्रिपुरा के नगर निकाय और पंचायतों में भाजपा का कोई सदस्य नहीं था। बंगाल में वह कई जगह नंबर दो है। त्रिपुरा की 72 फीसदी आबादी बंगाली और 28 फीसदी जनजाति है।
अमित शाह ने एक कुशल और माहिर रणनीतिकार अपनी सारी परीक्षाएं अव्वल दर्जे में पास करके दिखा दी है। लोकतंत्र के पाठ्यक्रम मे सर्वथा और सर्वदा बेहतर शिक्षक के तौर पर वह याद किए जाएंगे। मोर्चा, विस्तारक, पन्ना प्रमुख और संपर्क सरीखी व्यूह रचनाओं से अमित शाह ने कांग्रेस को तो चित किया ही वामपंथियों को भी बता दिया कि संगठन की दक्षता भाजपा की वामपंथ से अधिक है। तभी तो जिस शांति समझौते के खुलासे के न होने पर चुनाव बहिष्कार की बात की जा रही थी उस मुद्दे को भाजपा की सफल रणनीति के चलते ही चुनाव से बाहर कर दिया गया। उन्होंने भाजपा को उम्मीद की उड़ान पर सवार करा दिया है। अमित शाह जानते हैं कि किसको कहां किस काम के लिए लगाना चाहिए। तभी तो उन्होंने पूर्वोत्तर के मोर्चे पर संघ के राम माधव को भेजा। हर मंत्री की एक रात पूर्वोत्तर में गुजारने की ड्यूटी लगाई गयी। कमल का पौधा रुके हुए पानी में भी उगता है। फलता-फूलता है। अमित शाह ठहरे हुए पानी को भांपने वाले बड़े पारखी हैं।
भाजपा के इस विजय अभियान में मोदी और शाह की जोड़ी भी एक अचूक हथियार है। किसी भी राजनीतिक दल में संगठन और सरकार के स्तर पर ऐसा तालमेल नहीं देखा गया। अटल-आडवाणी युग में भी संशय उभरते थे। वे एक दूसरे को स्थानापन्न करने की दक्षता रखते थे। नतीजतन इस सहजता का अभाव था। मोदी और शाह प्रतिस्पर्धी नहीं पूरक हैं। उनकी यह पूरकता पार्टी की गति को बढाती है। भाजपा के चुनौतियों को अवसर में बदलती है। तभी तो एक ओर वे वामपंथ को अपने अस्तित्व के बारे में सोचने को विवश करते हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के सामने कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर देते है। पूर्वोत्तर में लोकसभा की 25 सीटें हैं लेकिन इन नतीजों ने कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और अगले लोकसभा चुनाव को लेकर खड़े किए जा रहे सवालों का एक साथ जवाब दिया है।