स्वामी विवेकानंद एक भास्वर सत्ता हैं, जो एक सुनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए दूसरे एक उच्चतर मंडल से इस मर्त्यभूमि पर अवतरित हुए थे। वे कालजयी हैं और कालजयी है उनकी वाणी। युवा भारत के इस स्वप्नदृष्टा के विचार आज भी उतने ही सामयिक हैं जितने तत्कालीन युग में थे। उनकी आग्नेय वाणी में इतनी ऊर्जा भरी है कि राख की ढेरी में भी दावानल पैदा कर दे; मुरदे में जीवन का संचार कर दे और अंधकार में भटकते- भरमते युवाओं के जीवन में उम्मीद की नयी रोशनी भर दे।
विदेशों में भारतीय संस्कृति की विजय पताका लहराने वाले इस युवा संन्यासी की विचारधारा इतनी सशक्त है कि राष्ट्र का एक बड़ा युवा वर्ग आज भी उनके व्यक्तित्व व विचारों से अपने जीवन की दिशा व दशा तय करता है। स्वामी विवेकानन्द की विचार संजीवनी में भारत के ही नहीं, अपितु समूचे विश्व की युवा शक्ति का सटीक मार्गदर्शक करने की क्षमता विद्यमान है।
इसलिए इनकी जयंती 12 जनवरी को "राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनायी जाती है। अपने प्रखर वैचारिक सूत्रों के चलते स्वामी विवेकानन्द विश्व के महानतम दार्शनिकों में गिने जाते हैं।एक परंपरागत हिन्दू संन्यासी होते हुए भी स्वामी जी ने हिन्दू धर्म व अध्यात्म को एक अभिनव व्याख्या दी और युवाओं को स्वयं में विश्वास करने के लिए प्रेरित किया।
वे कहते थे, सामान्य तौर पर माना जाता है कि नास्तिक वह है जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता किन्तु मेरा मानना है कि नास्तिक वह है जो स्वयं में विश्वास नहीं करता। स्वामी जी का मानना था कि हमारा खुद पर विश्वास ही हमें वह सम्बल प्रदान करता है जिसके आधार पर हम बुराई से लड़कर अच्छा कार्य करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले सकते हैं। वे कहते थे जिसका स्वयं में विश्वास नहीं होगा, उसका यदि ईश्वर में विश्वास हो तो भी उसके जीवन में कोई उल्लेखनीय उन्नति नहीं हो सकती। यह संसार उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिन्होंने स्वयं में विश्वास किया।
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12 जनवरी 1863 को कोलकाता में जन्मे भारतीय नवजागरण के महामनीषी स्वामी विवेकानन्द का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। प्रखर मेधा के धनी व अत्यन्त जिज्ञासु प्रवृति के विवेकानन्द अपने शिक्षा काल में अत्यन्त लोकप्रिय छात्र थे। 1879 में 16 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता से मेरिट के साथ एंट्रेस की परीक्षा पास की।
इस दौरान जिज्ञासाओं के शमन के लिए उन्होंने दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया। फिर वे ब्रह्मसमाज की शरण में गये पर उनकी जिज्ञासा शान्त न हुई। इसके बाद स्नातक के दौरान उनकी भेंट श्री श्री रामकृष्ण परमहंस जी से हुई जिन्होंने उन्हें ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता की अनुभूति करायी और समस्त मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना का गुरुमंत्र दिया। तत्पश्चात परमहंस गुरु से संन्यास की दीक्षा लेने के उपरान्त वे स्वामी विवेकानंद के रूप में विश्व विख्यात हुए।
स्वामी विवेकानन्द शक्ति के संचयन के लिए मन की एकाग्रता पर विशेष जोर देते हैं। आज अधिकतर युवाओं की समस्या यह है कि वे अपने मन को वश में नहीं कर पाते, अपितु स्वयं मन के अधीन हो जाते हैं, इसलिए मन की क्षमता बिखर जाती है। वे युवा वर्ग को शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए ज्यादा प्रेरित करते हुए कहते हैं, मानव मन की शक्ति असीम है,मन जितना एकाग्र होगा, उतनी ही तीव्रता से उसकी शक्ति लक्ष्य पर केन्द्रित होगी। यही सफलता का मूल रहस्य है।
स्वामी जी विचारों की पवित्रता पर भी बहुत बल देते हैं। वे कहते हैं- विचार ही व्यक्ति के आचरण व व्यवहार की प्रेरक शक्ति होते हैं, इसलिए कभी भी नकारात्मक विचार मन में नहीं आने चाहिए। एक अच्छा व सकारात्मक विचार गंभीरतम परिस्थिति में भी आशा का दामन नहीं छोड़ता। आज विज्ञान भी इस बात को मानता है कि सकारात्मक सोच से हमारा मन ही तरोताजा नहीं रहता, अपितु शारीरिक बीमारियां भी काफी हद ठीक हो जाती हैं। इसलिए जरूरी है कि युवा सही सोच के अनुरूप कार्य करने का नियमित अभ्यास करें क्योंकि बिना कर्म के अच्छे से अच्छा विचार भी निष्प्रभावी हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द कभी नहीं चाहते थे कि भारतीय युवा किसी धर्म, परंपरा या संस्कृति का अंधानुकरण करें। उनका कहना था कि हर भारतीय युवा को स्वयं अपनी शक्ति को समझाना व परखना होगा। दूसरों के अलंकरण मात्र से व्यक्ति की सृजनशीलता व विशिष्टता दब जाती है। वे कहते थे कोई व्यक्ति कितना महान क्यों न हो, मगर उस पर आंख मूंदकर भरोसा न करें।
यदि भगवान की ऐसी ही मंशा होती तो वह हर प्राणी को स्वतंत्र आंख, कान, नाक व दिमाग क्यों देते ? इसलिए हर युवा को अपना रास्ता खुद चुनना व बनाना चाहिए। इसके उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। इस तथ्य को समझाते हुए स्वामी जी कहते हैं कि जब भी कोई व्यक्ति आम परंपरा से हट कर अलग सोचता व करता है तो उसके बारे में तीन बातें निश्चित होती हैं- उपहास, विरोध और अंत में स्वीकृति। इसलिए सोच-विचार के बाद जो हमें सही लगता है, उसे अवश्य करना चाहिए बजाय दूसरे का अनुकरण करने के। वे कहते हैं कि जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसे अभी कर डालें।
भविष्य में क्या होगा ? इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। शिक्षा के संबंध में विवेकानन्द का कहना है कि शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों व सूचनाओं के संकलन मात्र नहीं अपितु उसे तकनीकी कौशल के साथ-साथ विद्यार्थियों को वैचारिक व चारित्रिक रूप से मजबूत बनाने वाला होना चाहिए।