चंदू त्रिपाठी का याद आना

Chandra Narayan Tripathi: चंदू की कांग्रेस के प्रति निष्ठा ग़ज़ब की थी। वह सुनते कम बोलते ज़्यादा था। मदद न लेना उनकी आदत का हिस्सा था।

Written By :  Yogesh Mishra
Published By :  Shreya
Update:2021-07-27 16:39 IST

चंद्र नारायण त्रिपाठी उर्फ चंदू (फाइल फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Chandra Narayan Tripathi AKA Chandu: साल तो याद नहीं। अगर जोड़ घटाव करके निकालने की कोशिश करूँ तो ज़्यादा गुंजाइश है कि गलती हो ही जाये। क्योंकि उन दिनों विश्वविद्यालय के सत्र बहुत विलंबित थे। लॉ की डिग्री में पाँच छह साल लग जाना आम बात थी। तब बीए दो साल का होता था। पर बीए एमए करने में तीन चार साल खप जाते थे।

मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय (Allahabad University) से अर्थशास्त्र विभाग से एमए (MA) कर रहा था। हॉस्टल एलाट नहीं हो पाया था। इसलिए शुरूआती दौर में मम्फोर्डगंज डेलीगेसी में कमरा किराये पर ले कर रहता था। मम्फोर्डगंज को इसलिए चुना था क्योंकि हमारी ननिहाल इसी मोहल्ले में है। इस मोहल्ले के काफी लोग हमें बचपन से जानते थे। ज़्यादातर लोगों से मेरा रिश्ता, नाना- नानी, मामा और मौसी का ही चलता था।

मैं रहता भले अलग था पर खाना खाने दिनेश मामा जी के यहाँ जाता था। इसी मोहल्ले में मेरा बचपन बीता था। विश्वविद्यालय के दिनों में मेरे पास अपनी स्कूटर थी। इसलिए चर्चा में रहना स्वाभाविक था। पढ़ाई में भी परीक्षाफल मेरी चर्चा को और बढ़ा देते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में प्रथम श्रेणी आना बेहद मुश्किल माना जाता था। ऐसे ही विषयों में राजनीति विज्ञान और अंग्रेज़ी भी थे। पर पहले साल ही हमें 66 फ़ीसदी नंबर मिले। इसी के साथ एमए अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण होना तय हो गया था।

मम्मफोर्डगंज में मैं जहां रहता था, वहीं से तीन चार सौ कदम दूर रतन दीक्षित जी रहते थे। वह उन दिनों की एक बहुत लोकप्रिय कंप्टीशन मैगज़ीन प्रगति मंजूषा निकालते थे। उनकी शहर में, विश्वविद्यालय में खासी पकड़ थी। चर्चा रहती थी। हिंदी माध्यम से कोई भी प्रतियोगी परीक्षा देने वाला शायद ही ऐसा कोई स्टूडेंट होता था, जिसके पास प्रगति मंजूषा न होती हो। 

छात्र नेता भूपेन्द्र त्रिपाठी

मंजूषा के नाते रतन दीक्षित पंडित जी के उपनाम के हक़दार हो गये थे। वह छात्रसंघ चुनाव (Student Union Election) में मठाधीशी भी करने लगे थे। वह पैनल बनाकर पदाधिकारी जितवाने और हरवाने का खेल खेलते थे। यह उनके मनोरंजन का साधन था। विश्वविद्यालय में एक छात्र नेता होते थे भूपेन्द्र त्रिपाठी। महामंत्री का चुनाव लड़ते थे। हमारा परिचय भी था क्योंकि वह मुझे हास्टल दिलाने की पैरवी करने वालों में थे। पर शराब उनकी बुरी आदतों में थी। 

छात्र संघ चुनाव की घोषणा के बाद वह मेरे पास आये और अपना प्रचार करने की बात कहने लगे। उनकी शराब की लत के नाते मैं मन ही मन उनसे बहुत खुन्नस रखता था। मेरे मुँह से उन्हें मना करते हुए गलती से यह निकल गया कि आपकी जगह मैं लड़ जाऊँ तो आपसे ज़्यादा वोट पाऊँगा। यह बात भूपेन्द्र जी को चुभने वाली थी। चुभ भी गयी। उन्होंने भी कहा कि किसी पद पर लड़ कर देखो हैसियत पता चल जायेगी। राजनीति आसान काम नहीं है। हमने कहा पर्चा ख़रीदने का पैसा दीजिए मैं लड़ कर दिखा देता हूँ।

प्रकाशन मंत्री का मंगा लिया फॉर्म

उन्होंने ताव से पॉकेट से पैसा निकाल कर दिया। हमारे साथ कमरे में प्रमोद पाठक रहते थे। मैंने पाठक जी को पैसे दिये। कहा, प्रकाशन मंत्री का एक फार्म ख़रीद लायें। यह पद मैंने इसलिए चुना क्योंकि उस समय मेरी एक किताब आ गयी थी। हालाँकि आज उस किताब को हम ही ख़ारिज करते हैं। आज लगता है कि उस समय कितना अनाप शनाप लिख गया था।

फार्म आ गया। भरने से पहले फ़ीस आदि सब का अपडेट रहना ज़रूरी था। यह मेरी शुरू से आदत रही है। आज भी है कि मैं सब कागज और लेन देन दुरुस्त रखता हूँ। आज अभी केवल 28 ऐसे मित्र हैं जिनकी देनदारी है। बाक़ी सब नो ड्यूस के स्तर पर हमेशा रखता हूँ।

मेरे पास प्रपोजर व सेकेंडर नहीं थे। पर फार्म भरना था। भूपेन्द्र त्रिपाठी नाराज़ होकर चले गये। पर्चा भरने के लिए प्रस्तावक व दूसरे अन्य का भी नो ड्यूज होना ज़रूरी था। मैंने अपने मित्र भूपेंद्र सिंह से कहा। वह प्रस्तावक बनने को तैयार हो गये। दूसरे आदमी के लिए मैंने मोहम्मद आरिफ़ को तैयार किया। पर्चा दाखिल हो गया। नाम वापसी के दिन के बाद रतन दीक्षित जी ने हमसे संपर्क किया।  

(फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

चंद्र नारायण त्रिपाठी चंदू से मुलाक़ात

उसी समय हमारी चंद्र नारायण त्रिपाठी (Chandra Narayan Tripathi) चंदू से मुलाक़ात हुई। मेरा कार्यालय डी जे हास्टल में खुल गया। प्रचार शुरू हुआ। हमने कुर्ता पायजामा न पहनना तय कर लिया था। पर जुलूस में अलग दिखने के लिए दोस्तों की राय से पैंट पर कुर्ता पहनना तय हुआ। लोगों को नमस्ते करने में झिझक हो रही थी। तो परमानंद मिश्र जी ने राय दी कि पेंसिल हाथ में लेकर दोनों हाथों के बीच फँसा कर इधर उधर करते रहो एक दो दिन में आदत पड़ जायेगी। परमानंद जी छात्रसंघ के महामंत्री रह चुके थे।

जैसे जैसे दिन आगे बढ़ने लगे मेरा टैंपो बनता गया। विश्वविद्यालय में कई लड़के महज़ इसलिए भी पर्चा भर देते थे ताकि महिला छात्रावास में आना जाना आसान हो सके। विवेक सिंह अपनी किसी महिला मित्र के भाई को जिताना चाहते थे। नतीजतन उन्होंने राय दी कि मैं उसके साथ हो जाऊँ तो मेरा महिला छात्रावास आने जाने का रास्ता भी खुला रहेगा। उनका उम्मीदवार भी जीत जायेगा। मैंने उनको बताया कि आप ग़लत सोच रहे हैं। मैं लड़ने के लिए नहीं जीतने के लिए लड़ रहा हूं। 

सबसे बड़े अंतर से मिली जीत

मैंने कोशिश तो एबीवीपी से लड़ने की की थी। पर एक नेता लक्ष्मीशंकर ओझा थे, उनकी चली। हमें टिकट नहीं मिला। फिर स्वतंत्र लड़ गया। ख़ैर उस चुनाव में सबसे बड़े अंतर से जीतने वाला उम्मीदवार बना। चंदू का भी टैंपो कम नहीं था। वह पहले भी चुनाव लड़ चुके थे। वह हमारे महामंत्री बन गये। चंदू धुर कांग्रेसी थे पीएसओ के अखिलेंद्र प्रताप सिंह अध्यक्ष एवं एसएफआई के धीरेंद्र प्रताप सिंह उपाध्यक्ष बने। धीरेंद्र सात आठ साल पहले हम लोगों को छोड़ चले गये। यात्रा के दौरान हार्ट अटैक पड़ा और उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

लंबी बिमारी के बाद चंदू भी नहीं रहे। चुनाव के दौरान से लेकर, कार्यकाल के समय और बाद में उनके साथ बिताये सारे पल याद हो उठे। चंदू इस संकट काल में भी कांग्रेसी रहे। उनकी कांग्रेस के प्रति निष्ठा ग़ज़ब की थी। वह सुनते कम बोलते ज़्यादा था। मदद न लेना उनकी आदत का हिस्सा था। दो तीन महीने पहले केजीएमयू के किसी डॉक्टर से उनके लीवर का इलाज चल रहा था। डॉक्टर ने मरीज़ की तरह उन्हें लाइन में लगा दिया था। 

नेतागीरी जिसकी बेसिक इंस्टीग्ट हो उसके लिए यह ख़राब लगने वाली बात थी। उन्होंने हमें फ़ोन किया। फ़ोन पर चंदू की आवाज़ बूढ़ी नहीं हुई थी। बिल्कुल विश्वविद्यालय के दिनों की तरह टनाटन थी। मैंने उन्हें केजीएमयू के कुलपति से आग्रह करके पहले दिखा दिया। बाद में डॉक्टर उन्हें खुद लाइन से बाहर रखने लगे। 

(फाइल फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

अपनी मन की किया करते थे चंदू

चंदू अपनी मन वाली ही करते थे। हमने उनसे कहा कि आपको पीजीआई में दिखा दें। वहाँ डॉ राजन सक्सेना मेरे दोस्त हैं। वह लीवर के बड़े डॉक्टर हैं। लेकिन चंदू तैयार नहीं हुए। जब कभी मेरा प्रयागराज जाना होता था तो मैं होटल में रूकता था। पर फ़ोन पाते ही चंदू तुरंत पहुँच जाते थे। बहुत बातें करते थे। उनके साथ अतीतजीवी होना अच्छा भी लगता था। कई बार नाहक बेहद पीछे तक खींच कर ले जाते थे। दूसरों की चिंता भी करते थे। उसके लिए कर भले कुछ न पायें पर उसके परेशानियों की चर्चा व उसके लिए राय हमेशा उनके पास होती थी। 

शादी और आरोप थाम लेते थे चंदू की गति

उन्हें रोकने के मेरे पास दो रामबाण थे। एक चंदू की शादी का ज़िक्र। दूसरे छात्रसंघ से मैंने जब अपना इस्तीफ़ा दिया था तब चंदू पर लगाये गये आरोप। ये दोनों चंदू की गति थाम लेते थे। चंदू की शादी शायद उसी गाँव में हुई थी जहां उनके पिताजी की ससुराल थी। इस कारण नाराज़ होकर उनके पिता उनकी शादी में शरीक नहीं हुए थे। देवरिया के किसी गाँव में बारात गयी थी। रास्ते में नदी पार करनी पड़ती थी। पहली बार मैंने कार को नाव पर चढते चढाते देखा था। मेरे लिए आश्चर्य भी था। भय भी।

भय क्योंकि उसी नाव पर हम भी सवार थे। शादी के दिन बारिश ऐसी की खाना पीना तो छोड़िये गाँव की सड़क कीचड़ से भर उठी थी। कोई भी ऐसा बराती नहीं था जो कीचड़ में सनने से बच गया हो। उस शादी की सारी यादें रूलाने या नाराज़ करने वाली थी। चंदू को भी परेशान करती थी। अगर मैं भूल नहीं रहा तो उनकी पत्नी का नाम संस्कृत साहित्य से लिया गया प्रियवंदा है।

रही मेरे छात्रसंघ से इस्तीफ़े की बात। तो एक बार स्वतंत्रता दिवस पर पीएसओ ने तय किया कि वे छात्रसंघ भवन पर काला झंडा फहरायेंगे। यह बात हमें पता चली। मैं ताराचंद हास्टल में गया। वहाँ अपने साथियों की एक बैठक बुलाई। पीएसओ के विरोध की रणनीति तैयार हो गयी। कैलाश पांडेय को रात को यह ज़िम्मेदारी दी गयी कि वह कहीं से एक झंडा बनवाकर लायें। दूसरे दिन सब लोग लाल पद्मधर भवन पर एकत्रित हुए। काला झंडा फहराने से पहले हमारे साथियों ने जोर ज़बर्दस्ती के बीच चढ़ कर तिरंगा फहरा दिया।

पदाधिकारियों पर आरोप मढ़ते हुए दे दिया इस्तीफा

हमारे साथ छात्रों का बड़ा हुजूम आ गया था। हम लोगों ने सायं से पहले झंडा उतारने वालों का विरोध करने की ठान रखी थी। हम लोग कामयाब हुए। पर हमारे इस आंदोलन में चंदू या धीरेंद्र हमारे साथ नहीं थे। क्योंकि मामला कुलपति द्वारा छात्रों के उत्पीड़न का था। मेरा कहना था कि स्वतंत्रता दिवस के अलावा हमें विरोध मनाना चाहिए। सारे पदाधिकारियों के असहयोग से मेरा मन खट्टा हो गया था। लिहाज़ हमने अपने साथी पदाधिकारियों पर कई आरोप मढ़ते हुए इस्तीफ़ा दे दिया। आरोप सचमुच चुभने वाले थे।

मैंने अपने इस्तीफ़े की प्रति छात्रों में बाँटी भी थी। चंदू इस्तीफ़े के आरोपों से बेहद आहत थे। हालाँकि मेरा इस्तीफ़ा मंज़ूर नहीं हुआ। पर इस्तीफ़े का ज़िक्र चंदू के लिए नाचते मोर को उसका पैर दिखाने जैसा होता था। कांग्रेस ने उन्हें कोई बड़ा क़द या पद तो नहीं दिया। पर वह कांग्रेस छोड़ने वाले नहीं थे। छोड़ा नहीं। उनकी पार्टी उठ नहीं पाई।

उनके पास रेंट कंट्रोल का एक मकान था। सिविल साइंस के बेहद बेशक़ीमती जगह पर। जब बिल्डर उसमें बिल्डर एग्रीमेंट पर फ़्लैट बनाना चाहते थे तब चंदू की शर्तें ऐसी थी कि बात नहीं बनी। जब चंदू ने अपनी शर्तें ढीली कीं। तब बिल्डर की शर्तों ने बात नहीं बनने दी। हालाँकि चंदू चाहते थे कि उन्हें एक फ़्लैट ही मिल जाये। चंदू बेसिक शिक्षा विभाग के हाईकोर्ट में वकील थे। काम अच्छा चल रहा था। पर बीमार पड़े तो काम जाता रहा। उनके लाखों रूपये डूब भी गये।

विभाग ने तब भी उन्हें उनकी फ़ीस के पैसे नहीं दिये। जब उन्हें पैसों की बहुत ज़रूरत थी। वह आर्थिक व मानसिक ही नहीं बीमारी के चलते शारीरिक दिक़्क़त भी झेल रहे थे। यह बात बाद में बहन पम्मी ने हमें बताया। पर हैरत हुई कि कभी चंदू ने हमसे न तो यह सब शेयर किया। न ही कोई मदद माँगी। 

(फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

छात्रनेता होने का रखते थे एटीट्यूड 

चंदू त्रिपाठी जी की अदालती सक्रियता स्वास्थ्य खराब होने के बाद से ही कम हो गई थी। बेटों के भविष्य की चिंता और खुद की तबियत...चंदू जी के लिए एक दोहरी चुनौती बन गए थे। पीजीआई लखनऊ में इलाज से लेकर इलाहाबाद के आख़िरी बिस्तर तक आर्थिक दुश्वरियां थीं लेकिन तमाम सामाजिक संबंधों के बावजूद उन्होंने किसी से ये कहा नहीं। सिविल लाइंस के घर में कोई मिलने जाता तो घर में घुसते ही बड़े से हाल में चंदू जी पड़े मिलते। दवाओं का असर शरीर में जो बदलाव करता उससे कई बातें भूल जाती थीं। पर जो नहीं भूला वो ये कि वो एक छात्रनेता थे।

कोई सुनने वाला मिले तो सुनाते थे माइक मीटिंग और बीएचयू से लेकर इलाहाबाद तक के क़िस्से। लेकिन सेहत के लिए लापरवाह रहे....छात्रनेता होने का वो एटीट्यूड नहीं छूटा उनसे। कई दफे पत्नी को डाँट कर परहेज़ के बावजूद अपनी पसंद का कुछ ना कुछ बनवाते। बेटे आपत्ति करते, चिल्लाते लेकिन जैसे यूनिवर्सिटी में आंदोलन के वक़्त पुलिसिया पाबंदी तोड़ते वक़्त छात्रनेता आगे पीछे का नहीं सोचते, चंदू ने नहीं सोचा कि आगे क्या होगा।

लीवर फेल होने से निधन

आख़िरी बार तबियत भी इसलिए बिगड़ी क्यूंकि उन्होंने एक दवा को मीठा बताकर उसे खाने से इंकार कर दिया। सालों से खराब लीवर जवाब दे गया और चंदू निष्प्राण हो ग़ए। पर अस्पताल से आई आख़िरी तस्वीर एडवोकेट चंद्र नारायण त्रिपाठी नहीं, छात्रनेता चंदू त्रिपाठी सी रही।

मुँह पर ऑक्सीजन मास्क लगाए चंदू ऐसे बैठे रहे जैसे मौत के सामने आमरण अनशन का प्रण लिया हो। जैसे संगम पर कुंभ में बैठा कोई हठयोग को उतर आया हो। चंदू एक निद्रा में विलीन हैं। अगले कई दशकों के लिए। पम्मी बताती है कि चंदू ने एक कुत्ता पाल रखा था। उसे वह बहुत मानते थे। ब्रह्म भोज के दिन जब पम्मी उनके घर गयी तो घरवालों ने बताया कि बारह दिनों से इसने कुछ नहीं खाया है।

चंदू सा कोई कभी नहीं मरता, छात्रसंघ भवन के उस हरे बोर्ड पर चंदू हमेशा ज़िंदा रहेंगे, जहां से अगली कई सदियों तक पूरब के आक्सफ़ोर्ड के छात्र आंदोलनों का इतिहास लिखा जाएगा।

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