सब हार कर गए अफगानिस्तान से
अफगानिस्तान रूपी दलदल में बरसों तक असफल युद्ध लड़ने वाला अमेरिका ही अकेला देश नहीं है। इससे पहले सिकंदर, सोवियत संघ और ब्रिटिश एम्पायर भी यहां असफल युद्ध लड़कर रुखसत हो चुके हैं।
Islamic Republic Of Afghanistan: 20 साल तक लड़ने के बाद अमेरिका की सेनाएं इस्लामिक रिपब्लिकन ऑफ अफगानिस्तान से रुखसत हो गई। अफगानिस्तान रूपी दलदल में बरसों तक असफल युद्ध लड़ने वाला अमेरिका ही अकेला देश नहीं है। इससे पहले सिकंदर, सोवियत संघ और ब्रिटिश एम्पायर भी यहां असफल युद्ध लड़कर रुखसत हो चुके हैं। मध्य और दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान की ऐसी सामरिक पोजीशन है जो हमलावरों को हमेशा से ललचाती रही है। लेकिन यह देश ऐसे लोगों का है जो अपनी एक एक इंच जमीन को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।
अफगानिस्तान बहुत लंबे समय तक प्रतिस्पर्धी विदेशी ताकतों का केंद्र रहा है। 1839 से 1919 के बीच ब्रिटेन ने यहां तीन युद्ध लड़े। जिनमें पहली दो लड़ाइयों में ब्रिटेन का मकसद इस क्षेत्र में रूस के प्रभाव को रोकना था। जबकि तीसरा युद्ध तुर्की के ओटोमन एम्पायर के खिलाफ लड़ा गया।
इसी तरह रूस ने अमेरिका से प्रतिस्पर्धा के चलते यहां 1979 से 1988 के बीच कब्जा जमाये रखा। उस वक्त सीआईए ने रूस को बेदखल करने के उद्देश्य से अफगान मुजाहिदीन को हर तरह की मदद की। मतलब यह कि जब तक रूस यहां रहा उसे मुजाहिदीनों से जूझते रहना पड़ा।
ईरान पर तालिबान की मदद का आरोप
जब अमेरिका को अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ाई लड़नी पड़ी तो उसने और उसके नाटो सहयोगियों ने ईरान पर तालिबान की मदद का आरोप लगाया। अफगानिस्तान दरअसल एक राष्ट्र की परिभाषा में आता ही नहीं है। यहां हर कबीला और उसका इलाका अपने आप में राष्ट्र है। इन कबीलों के बीच सदियों से रंजिशें चली आ रही हैं । लेकिन बाहरी लोगों से लड़ने में ये एकजुट हो जाते हैं।
इन हालातों में अफगानिस्तान में ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ सबको ढेरों दुश्वारियों और अचम्भों का सामना करना पड़ा है। इसकी वजह अफगानिस्तान की भौगोलिक संरचना और यहां के ढेरों कबीलों का नेटवर्क है। ये ऐसी जगह है जहां पठार, ऊंचे पहाड़ और जबरदस्त ऊंचाइयों पर स्थित रेगिस्तान हैं। यह ऐसा इलाका है जिसे किसी भी देश की सेना को समझना बेहद मुश्किल रहा है। पहाड़ों,गुफाओं, वादियों का ऐसा जाल है जहां किसी को ढूंढना या टारगेट करना टेढ़ी खीर है। भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि सैन्य उपकरण और सैनिक, दोनों का ही मूवमेंट बहुत मुश्किल होता है।
अलग अलग इलाकों में चलता है कबीलों का साम्राज्य
दूसरी बात यह है कि, अफगानिस्तान वास्तव में एक मुल्क जैसा नहीं है, यहां अलग अलग इलाकों में कबीलों का साम्राज्य चलता है। इनका अपना कानून और प्रथाएं हैं। एक कबीले के लिए अपना धर्म, अपनी जमीन और अपने लोग से बढ़ कर कुछ नहीं है। ऐसे में कोई भी बाहरी ताकत किसी कबीले को कंट्रोल नहीं कर सकी है। तालिबान भी इन्हीं कबीलों के हैं जिनको स्थानीय लोगों का समर्थन स्वेच्छा से या भय से, मिलता रहता है। अफगानिस्तान में 14 मान्यता प्राप्त कबीले या जातीय ग्रुप हैं। हर ग्रुप के अनेक उप कबीले हैं। जिनके आपसी संबंध समझना ही बेहद कठिन है, यह अमेरिका और सोवियत संघ अच्छी तरह जान चुके हैं।
अफगान जनजातियां, जिनमें पख्तून सबसे प्रमुख हैं, इतनी आज़ाद हैं कि उनको अफगानिस्तान एक राष्ट्र के रूप में भी स्वीकार्य नहीं है। उनको बस अपने कबीलों से मतलब है। उनकी निगाह में अफगान प्रेसिडेंट काबुल के मेयर से ज्यादा कुछ नहीं होता है। कबीलों का जो सिस्टम सैकड़ों साल से चला आ रहा है उसे बदलने में सिकंदर भी फेल हो गया था। सिकन्दर और उसके बाद यहां रह गए उसके जनरलों ने यहां एक दशक तक खूनी लड़ाइयां लड़ीं। पर बुरी तरह असफल रहे।
अमेरिका के हस्तक्षप के बाद मारे गए 80 हजार से ज्यादा तालिबान मुजाहिदीन
अफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में नाटो के हस्तक्षेप के बाद 80 हजार से ज्यादा तालिबान मुजाहिदीन मारे जा चुके हैं। लेकिन वे न तो खत्म हुए और न कमजोर पड़े। दरअसल पख्तूनों को सरेंडर या समझौते का कॉन्सेप्ट ही समझ नहीं आता है। उनको सिर्फ लड़ना, मारना या मरना ही आता है। उनके कबीलों के आठ - दस साल के बच्चे आंख पर पट्टी बांध कर एके47 को पूरा खोल कर दोबारा असेंबल कर सकते हैं।
एक अमेरिकी जनरल ने बहुत पहले कहा था कि पख्तून लोग रेड इंडियन की तरह हैं जिन्होंने तीन सौ साल तक स्पेनिश, फ्रेंच, ब्रिटिश और अमेरिकी हमलावरों से लड़ाइयां लड़ीं।
अफगानिस्तान की स्थिति और अफगान कबीलों को पारंपरिक युद्ध से नहीं हराया जा सकता। यह पड़ोसी चीन अच्छी तरह जानता है। यही वजह है कि उसने कभी यहां दखल देने की जुर्रत नहीं की। इसी तरह ईरान और पाकिस्तान भी असलियत पहचानते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान का सबसे बुरा वक्त 44 साल पहले शुरू हुआ था। जब सोवियत संघ के समर्थन से अफगानी कम्युनिस्टों ने तख्ता पलट कर सत्ता पर कब्जा कर लिया था। तभी से अफगानिस्तान में गृह युद्ध चला आ रहा है। इस युद्ध में हर तबके के लोग शामिल हैं। लेकिन मुख्यतः यह लड़ाई अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ लड़ी जा रही है। जिसके कारणों में जमीन, इज्जत, अफीम, भ्रष्टाचार आदि शामिल हैं। तालिबान इन्हीं कारणों को खत्म करने के चलते अजेय और अभेद्य बना हुआ है।
क्या है तालिबान?
तालिबान या तालेबान एक सुन्नी इस्लामिक आधारवादी आन्दोलन है। जिसकी शुरूआत 1994 में दक्षिणी अफगानिस्तान में हुई थी। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी (छात्र)। ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं। तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। 1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था। उसने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था।
तालिबान को सिर्फ एक उग्रवादी या चरमपंथी ग्रुप बतलाना सहित नहीं है। ये इस्लाम की व्याख्या बिल्कुल अपने तरीके से करने के लिए प्रतिबद्ध है। 1990 के दशक में जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी तो उस समय कई ग्रुप उठ खड़े हुए थे, जिसमें यह ग्रुप भी एक था।
शुरुआत के दिनों में तालिबान एक ऐसा ग्रुप था जो पशतून बोली बोलता था। इन लोगों का मानना था कि इस्लाम में जिस तरह से व्याख्या की गई है उसी तरह रहना चाहिये। वहाबियों की तरह इस्लाम की वे बहुत सख्त तरीके से व्याख्या करते हैं। वे इसमें तेजी से बदलते सामाजिक सिस्टम या फिर उसकी सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते।
सख्त सजा के समर्थन में रहता है तालिबान
तालिबान सख्त सजा को सपोर्ट करता है। जैसे दोषी हत्यारों या महिलाओं के साथ जुर्म करने वालों की सार्वजनिक फांसी। चोरी करते पाए जाने पर शरीर छलनी कर देना। पुरुषों को दाढ़ी बढ़ाकर ही रखनी है। महिलाओं को बुर्के से पूरा ढका होना चाहिए। अफगानिस्तान में प्रचलित 'बच्चा बाज़ी' पर प्रतिबंध लगाना इसमें शामिल हैं। अफगानिस्तान में कई कबीलों के सरगना, सरकार के उच्च अधिकारी खूबसूरत लड़कों को औरतों के कपड़े पहना कर अपने पास रखते हैं। उनको अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। तालिबान ने इस ओर प्रतिबंध लगा दिया था।
इसके अलावा अफगानिस्तान में व्यापक रूप से अफीम की खेती पर भी तालिबान ने रोक लगा दी थी। हालांकि तालिबान विरोधियों का कहना है कि तालिबान अफीम की खेती करने वालों से टैक्सवसूली करता था। उसने ड्रग्स के कारोबार से मोटी कमाई की है।
अफ़गानिस्तान के कंधार प्रान्त के ख़ाकरेज़ जिले में मौलवी ग़ुलाम नबी अख़ूंद का बेटा था ओमर। शुरू से मजहबी तालीम और मजहबी माहौल में पले बढ़े ओमर का दिमाग़ी रुझान बचपन से ही धर्म की तरफ़ मुड़ चुका था। 70 के दशक में ओमर गांव के मदरसे से निकलकर आगे की तालीम के लिए कंधार शहर पहुंचा। यहां उसकी दीनी तालीम के ही दौरान 1979 में एक बड़ी घटना हुई। इस बरस सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर हमला कर दिया।
सोवियत सेना से लड़ने के लिए अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की एक फ़ौज खड़ी हो गई जिसमें अलग-अलग समूह थे। इन्हीं में से एक ग्रुप कंधार शहर के उन धार्मिक छात्रों का भी था, जिन्हें लोग 'तालिब' बुलाते थे। ओमर ने भी सोवियत के खिलाफ़ चल रही जंग में शिरक़त की। वह युद्ध में तीन बार जख़्मी हुआ। उसकी एक आंख चली गई।
1989 में सोवियत की वापसी के साथ युद्ध ख़त्म हो गया। लेकिन मुजाहिदीन अब अफ़गानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में वर्चस्व बनाने के लिए लड़ रहे थे। इस अराजकता में तालिब गुट ने तय किया कि वो कंधार में हावी हो चुके गिरोहों से लड़ेंगे. इस तालिब ग्रुप का लीडर बना ओमर। इस संगठन ने अपना नाम रखा- तालिबान। यही तालिबान आज बड़ी बड़ी सुपर पावर्स के दांत खट्टे करने की हैसियत रखता है। बीस साल में अमेरिका ने अफगानिस्तान के सुरक्षा बलों को ट्रेनिंग देने, साजो सामान से सुसज्जित करने में 88 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च किया है । लेकिन आज की स्थिति में कबीलाई तालिबान लड़ाके अफगान सेना और पुलिस पर बहुत भारी हैं।
- पाकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और चीन से घिरा हुआ है अफगानिस्तान।
- कुल एरिया है पश्चिमी यूरोप के बराबर - 6 लाख 52 हजार वर्ग किलोमीटर।
- करीब 4 करोड़ की जनसंख्या।
- पख्तून, ताजिक, हाजरा और उज़्बेक सबसे बड़े जातीय समूह हैं।
- जीडीपी है 21.657 बिलियन डॉलर, विश्व में 111वें स्थान पर
- प्रति व्यक्ति जीडीपी 493 डॉलर
- साक्षरता 43 फीसदी
- तालिबान ने इंटरनेट बैन कर रखा था। अमेरिका के आक्रमण के बाद 2002 में इंटरनेट आया। करीब 47 लाख यूजर हैं वर्तमान में।
- सिर्फ 35 फीसदी आबादी को बिजली उपलब्ध है।
- कुल 17 हजार किलोमीटर पक्की सड़कें हैं।
-आबादी : 3.22 करोड़
-क्षेत्रफल : 6,52,230 वर्ग किमी (राजस्थान से लगभग दोगुना)
-सरकार प्रमुख : अशरफ घानी (राष्ट्रपति)
प्रमुख कबीले : पश्तुन (42%), ताजिक (27%)
1979 : सोवियत संघ की लाल सेना ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया। रूसी सेना ने बारबरक कर्माल के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सरकार बनवाई। 80 लाख से ज्यादा अफगानिस्तानियों ने पाकिस्तान व ईरान में शरण ली।
1980 : अमेरिका की सीआईए ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए अफगानी मुजाहिदिन को ऑपरेशन साइक्लोन के लिए पैसा और हथियारों की आपूर्ति शुरू की। पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक जिया उल हक जरिया बने।
सितंबर 1986 : अमेरिका ने मुजाहिदिनों को शोल्डर हेल्ड एंटी एयरक्राफ्ट स्ट्रिंजर मिसाइल दी। इससे युद्ध का रुख बदल गया। सोवियत संघ ने वापसी पर बातचीत शुरू कर दी।
15 फरवरी 1989 : आखिरी सोवियत सैनिक ने अफगानिस्तान छोड़ा। रूस का 10 साल का कब्जे समाप्त।
अप्रैल 1992,: मुजाहिदीन समूहों ने काबुल में प्रवेश किया। भाग रहे नजीबुल्लाह को हवाई अड्डे पर रोक दिया गया। नजरबंद किया।
1994 - दक्षिणी कंधार में तालिबान का उदय हुआ। इस प्रांत पर कब्जा कर लिया। इसके बाद तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत बनानी शुरू की।
सितंबर 1996 : तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। तालिबान ने नजीबुल्लाह और उसके भाई को फांसी पर लटका दिया।
सितंबर 2001 : 9/11 के हमले के बाद वाशिंगटन ने मुल्ला उमर को अल्टीमेटम देकर ओसामा बिन लादेन को सौंपने को कहा। तालिबान नेता ने मना कर दिया।
7 अक्टूबर, 2001 : अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन ने अफगानिस्तान पर आक्रमण शुरू किया।
7 दिसंबर 2001 : मुल्ला उमर ने कंधार छोड़ दिया और तालिबान शासन आधिकारिक रूप से ध्वस्त हो गया।
2004 और 2009 : दो आम चुनावों में करजई लगातार दो बार राष्ट्रपति चुने गए।
8 दिसंबर, 2014 : अमेरिकी और नाटो सैनिकों ने औपचारिक रूप से अपने लड़ाकू मिशन को समाप्त कर दिया। अब अमेरिका की भूमिका समर्थन और प्रशिक्षक के रूप में सीमित रह गई।
29 फरवरी, 2020 : अमेरिका और तालिबान ने दोहा, कतर में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। अफगानिस्तान से 13 हजार अमेरिकी सैनिकों की समयबद्ध वापसी तय हुई।
14 अप्रैल, 2021 : राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि अफगानिस्तान में शेष 2,500-3,500 अमेरिकी सितंबर तक वापस लौट जाएंगे।
2 जुलाई 2021 : अमेरिका ने बाग्रामी एयरफील्ड को अफगान सेना को सौंप दिया। अमेरिका सेना की अफगानिस्तान में उपस्थिति के दौरान बाग्रामी एयरफील्ड अमेरिका का मुख्य वार रूम बना रहा।
जारी हुआ ये फरमान
तजाकिस्तान की सीमा से लगे शीर खान बांदर इलाक़े पर तालिबानी क़ब्ज़े के बाद फ़रमान जारी किया गया है कि जिसमें कहा गया है कि पुरुष दाढ़ी ज़रूर रखें। स्मोकिंग पूरी तरह प्रतिबंधित है। कोई औरत घर से बाहर नहीं निकलेगी। यहां बहुत सी महिलाएं और लड़कियां कढ़ाई, सिलाई और जूते बनाने का काम करती हैं लेकिन तालिबान के हुक्म से यहां दहशत है।तालिबान का एक कथित आदेश सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ है। इसमें ग्रामीणों को हुक्म दिया गया है कि वे अपनी लड़कियों और विधवा महिलाओं की शादी तालिबान लड़ाकों से कर दें।
तालिबान कल्चरल कमीशन के नाम से जारी आदेश में कहा गया है कि तालिबान के कब्जे वाले इलाकों के सभी इमाम और मुल्ला 15 साल से ऊपर की लड़कियां और 45 साल से कम उम्र की विधवा महिलाओं की शादी तालिबान लड़ाकों से कराना सुनिश्चित करेंगे।
जबकि तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहउल्लाह मुजाहिद ने कहा है कि फर्जी कागजों के जरिये अफवाहें फैलाई जा रही हैं।
लेकिन तालिबानी कंट्रोल वाले इलाकों के लोगों का कहना है कि ये सब अफवाह नहीं बल्कि सच्चाई है।
ताजिकिस्तान सीमा से लगे यवान जिले के एक व्यक्ति के अनुसार तालिबान ने लोकल मस्जिद में लोगों को एकत्र किया और कहा कि किसी को रात में घर से निकलने की इजाजत नहीं है। तालिबान कमांडरों ने ये भी कहा कि किसी व्यक्ति, खासकर युवाओं को लाल या हरे रंग का रंग का कपड़ा पहनने की इजाजत नहीं है। बता दें कि ये रंग अफगानी झंडे में हैं।
कमांडरों ने ये भी कहा कि सबको पगड़ी पहननी होगी और किसी भी पुरुष को शेव नहीं करना है।
लड़कियों के बारे में कहा गया कि छठी क्लास के बाद कोई लड़की स्कूल नहीं जाएगी।
अफगानिस्तान की एरियाना न्यूज ने तखर प्रान्त में लोगों के हवाले से बताया है कि तालिबान ने लड़कियों के लिए दहेज के नियम भी तय कर दिए हैं। तालिबान ने एक बयान में महिलाओं से एक रिश्तेदार (मोहरम) के बिना बाहर नहीं निकलने का हुक्म किया है। तालिबान बिना सबूत के मुकदमे भी चलाना शुरू कर चुका है। लोगों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सारी सेवाएं छीन ली गई हैं। अस्पतालों और स्कूलों को बंद करवा दिया गया है, लोगों को खाना खाने के बदले भी पैसे देने पड़ रहे हैं।
दी जाएगी ऐसी कठोर सजा
तालिबान का कहना है कि वे इस्लाम के दायरे में मानवाधिकारों, खास कर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करेंगे। तालिबानी जज गुल रहीम का कहना है कि चोरी करने की सजा के रूप में अपराधियों के हाथ और पैर काट दिए जाएंगे। रहीम ने कहा कि हमारा उद्देश्य अफगानिस्तान में शरिया कानून लागू करना होगा। तालिबानी जज ने आगे कहा कि हम अपराध के आधार पर सजा तय करते हैं। सबसे पहले ऊंगलियों को काटा जाता है और यदि गुनाह ज्यादा बड़ा है तो फिर हाथ और उसके बाद पैरों को काटने का हुक्म दिया जाता है। बहुत गंभीर अपराधों में ही पत्थर मारकर या फांसी पर लटकाकर मौत की सजा दी जाती है। समलैंगिकों को सजा देने के बारे में रहीम ने कहा कि या तो उन्हें पत्थर मारकर मौत की सजा दी जाएगी या उनके ऊपर दीवार गिराई जाएगी, जो निश्चित रूप से 8 से 10 फुट ऊंची होनी चाहिए।
2001 में अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान आने से पहले तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान में पुरातन राज कायम कर दिया था और नियमों का उल्लंघन करने वालों पर बर्बर कार्रवाई की जाती थी। महिलाओं की सड़कों पर पिटाई की जाती थी, यातनाएं दी जाती थी और तालिबान की इस्लामी पुलिस महिलाओं पर सख्ती से तालिबानी कानून लागू करती थी।
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