'मूक' समाज को आवाज देकर ही उनके 'नायक' बने बाबा साहब

अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के क़ुदरती तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नज़रिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा।

Written By :  Sanjay Dwivedi
Published By :  Monika
Update:2021-04-13 13:30 IST

डॉ भीमराव आंबेडकर (फाइल फोटो )

"अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के क़ुदरती तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नज़रिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा।"1 बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने आज से 100 वर्ष पूर्व 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार 'मूकनायक' के पहले संस्करण के लिए जो लेख लिखा था, यह उसका पहला वाक्य है। अपनी पुस्तक 'पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव आंबेडकर' में लेखक सूर्यनारायण रणसुभे ने इसलिए कहा भी है - कि "जाने-अनजाने बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया था।"

आज के मीडिया को कैसे देखा जाए? यदि इस सवाल का जवाब ढूंढना है, तो 'मूकनायक' के माध्यम से इसे समझना बेहद आसान है। इस संबंध में मूकनायक के प्रवेशांक के संपादकीय में आंबेडकर ने जो लिखा था, उस पर ध्यान देना बेहद आवश्यक है। आंबेडकर लिखते हैं कि 'मुंबई जैसे इलाक़े से निकलने वाले बहुत से समाचार पत्रों को देखकर तो यही लगता है कि उनके बहुत से पन्ने किसी जाति विशेष के हितों को देखने वाले हैं। उन्हें अन्य जाति के हितों की परवाह ही नहीं है। कभी-कभी वे दूसरी जातियों के लिए अहितकारक भी नज़र आते हैं। ऐसे समाचार पत्र वालों को हमारा यही इशारा है कि कोई भी जाति यदि अवनत होती है, तो उसका असर दूसरी जातियों पर भी होता है। समाज एक नाव की तरह है। जिस तरह से इंजन वाली नाव से यात्रा करने वाले यदि जानबूझकर दूसरों का नुक़सान करें, तो अपने इस विनाशक स्वभाव की वजह से उसे भी अंत में जल समाधि लेनी ही पड़ती है। इसी तरह से एक जाति का नुक़सान करने से अप्रत्यक्ष नुक़सान उस जाति का भी होता है जो दूसरे का नुक़सान करती है।'

बाबा साहेब ने जो लिखा, उसको आज के दौर के मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो स्थितियां क़रीब-क़रीब कुछ वैसी ही दिखाई देती हैं। आज का मीडिया हमें कुछ उस तरह ही काम करता दिखाई देता है, जिसको पहचानते हुए बाबा साहेब ने 'मूकनायक' की शुरुआत की थी। इस समाचार पत्र के नाम में ही आंबेडकर का व्यक्तित्व छिपा हुआ है। मेरा मानना है कि वे 'मूक' समाज को आवाज देकर ही उनके 'नायक' बने। बाबा साहेब ने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरुआत की। उनका संपादन किया। सलाहकार के तौर पर काम किया और मालिक के तौर पर उनकी रखवाली की। मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबा साहेब की आयु मात्र 29 वर्ष थी। और वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी 1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे थे। अक्सर लोग ये प्रश्न करते हैं कि कि एक उच्च शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके वह सवर्ण समाज के बीच प्रसिद्धी पा सकते थे और अंग्रेज सरकार तक दलितों की स्थिति प्रभावी ढंग से रख सकते थे। लेकिन बाबा साहेब ने 'मूकनायक' का प्रकाशन वर्षों के शोषण और हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया गया था। जो समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में लिखना और पढ़ना भी कठिन था, उनके बीच जाकर 'अंग्रेजी मूकनायक' आखिर क्या जागृति लाता? इसलिए आंबेडकर ने मराठी भाषा में ही समाचार पत्रों का प्रकाशन किया।

अगर हम उनकी पहुंच की और उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलनों की बात करें, तो बाबा साहेब अपने समय में संभवत: सब से ज़्यादा दौरा करने वाले नेता थे। सबसे खास बात यह है कि उन्हें ये काम अकेले अपने बूते ही करने पड़ते थे। न तो उन के पास सामाजिक समर्थन था, न ही आंबेडकर को उस तरह का आर्थिक सहयोग मिलता था, जैसा कांग्रेस पार्टी को हासिल था। इसके विपरीत, आंबेडकर का आंदोलन ग़रीब जनता का आंदोलन था। उनके समर्थक वो लोग थे, जो समाज के हाशिए पर पड़े थे, जो तमाम अधिकारों से महरूम थे, जो ज़मीन के नाम पर या किसी ज़मींदार के बंधुआ थे। आंबेडकर का समर्थक, हिंदुस्तान का वो समुदाय था, जो आर्थिक रूप से सब से कमज़ोर था। इसका नतीजा ये हुआ कि आंबेडकर को सामाजिक आंदोलनों के बोझ को सिर से पांव तक केवल अपने कंधों पर उठाना पड़ा। उन्हें इस के लिए बाहर से कुछ ख़ास समर्थन हासिल नहीं हुआ। और ये बात उस दौर के मीडिया को बख़ूबी नज़र आती थी। आंबेडकर के कामों को घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी जाना जाता था। हमें हिंदुस्तान के मीडिया में आंबेडकर की मौजूदगी और उनके संपादकीय कामों की जानकारी तो है, लेकिन ये बात ज़्यादातर लोगों को नहीं मालूम कि उन्हें विदेशी मीडिया में भी व्यापक रूप से कवरेज मिलती थी। बहुत से मशहूर अंतरराष्ट्रीय अख़बार, आंबेडकर के छुआछूत के ख़िलाफ़ अभियानों और महात्मा गांधी से उनके संघर्षों में काफ़ी दिलचस्पी रखते थे। लंदन का 'द टाइम्स', ऑस्ट्रेलिया का 'डेली मर्करी', और 'न्यूयॉर्क टाइम्स', 'न्यूयॉर्क एम्सटर्डम न्यूज़', 'बाल्टीमोर अफ्रो-अमरीकन', 'द नॉरफॉक जर्नल' जैसे अख़बार अपने यहां आंबेडकर के विचारों और अभियानों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। भारतीय संविधान के निर्माण में आंबेडकर की भूमिका हो या फिर संसद की परिचर्चाओं में आंबेडकर के भाषण, या फिर नेहरू सरकार से आंबेडकर के इस्तीफ़े की ख़बर। इन सब पर दुनिया बारीक़ी से नज़र रखती थी। बाबा साहेब ने अपने सामाजिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया।

मूकनायक का प्रकाशन बंद होने के बाद, आंबेडकर एक बार फिर से पत्रकारिता के क्षेत्र में कूदे, जब उन्होंने 3 अप्रैल 1927 को 'बहिष्कृत भारत' के नाम से नई पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। ये वही दौर था, जब आंबेडकर का महाद आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था। बहिष्कृत भारत का प्रकाशन 15 नवंबर 1929 तक होता रहा। कुल मिला कर इसके 43 संस्करण प्रकाशित हुए। हालांकि, बहिष्कृत भारत का प्रकाशन भी आर्थिक दिक़्क़तों की वजह से बंद करना पड़ा। मूकनायक और बहिष्कृत भारत के हर संस्करण की क़ीमत महज़ डेढ़ आने हुआ करती थी, जबकि इस की सालाना क़ीमत डाक के ख़र्च को मिलाकर केवल 3 रुपए थी। इसी दौरान समता नाम के एक और पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ, जिससे बहिष्कृत भारत को नई ज़िंदगी मिली। उसे 24 नवंबर 1930 से 'जनता' के नए नाम से प्रकाशित किया जाने लगा। जनता, भारत में दलितों के सब से लंबे समय तक प्रकाशित होने वाले अखबारों में से है, जो 25 वर्ष तक छपता रहा था। जनता का नाम बाद में बदल कर, 'प्रबुद्ध भारत' कर दिया गया था। ये सन् 1956 से 1961 का वही दौर था, जब आंबेडकर के आंदोलन को नई धार मिली थी।

आंबेडकर ने 65 वर्ष 7 महीने और 22 दिन की अपनी जिंदगी में करीब 36 वर्ष तक पत्रकारिता की। 'मूकनायक' से लेकर 'प्रबुद्ध भारत' तक की उनकी यात्रा, उनकी जीवन-यात्रा, चिंतन-यात्रा और संघर्ष-यात्रा का भी प्रतीक है। मेरा मानना है कि 'मूकनायक'... 'प्रबुद्ध भारत' में ही अपनी और पूरे भारतीय समाज की मुक्ति देखता है। आंबेडकर की पत्रकारिता का संघर्ष 'मूकनायक' के माध्यम से मूक लोगों की आवाज बनने से शुरू होकर, 'प्रबुद्ध भारत' के निर्माण के स्वप्न के साथ विराम लेता है।

मीडिया के पराभव काल की मौजूदा परिस्थितियों में आंबेडकर का जीवन हमें युग परिवर्तन का बोध कराता है। पत्रकारिता में मूल्यविहीनता के सैलाब के बीच अगर बाबा साहेब को याद किया जाए, तो इस बात पर भरोसा करना बहुत कठिन हो जाता है कि पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में कोई हाड़मांस का इंसान ध्येयनिष्ठा के साथ अपने पत्रकारीय जीवन की यात्रा को जीवंत दर्शन में भी तब्दील कर सकता है। इस संदर्भ में वरिष्ठ विचारक और चिंतक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक 'डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा' में लिखा है, कि 'भारतीय समाचार-पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है। परंतु आज चिंता की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार करने वाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को मानने वाला, समाचार पत्र को लोकशिक्षण का माध्यम मानकर तथा एक व्रत के रूप में उपयोग करने वाला आंबेडकर जैसा पत्रकार मिलना दुर्लभ हो रहा है।' आंबेडकर की पत्रकारिता हमें ये सिखाती है कि जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग जैसी शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की कोशिश ईमानदारी से की जानी चाहिए और यही मीडिया का मूल मंत्र होना चाहिए। पत्रकारों की अपनी निजी राय हो सकती है, लेकिन ख़बर बनाते या दिखाते समय उन्हें अपनी राय से दूर रहना चाहिए, क्योंकि रिपोर्टिंग उनके एजेंडे का आईना नहीं है, बल्कि अपने पाठकों के साथ पेशेवर क़रार का हिस्सा है। हमारे देश का मीडिया बहुत समय पहले से ही अपनी इस पेशेवर भूमिका से हटकर कुछ और ही दिखाने या लिखने लगा है। 100 साल पहले बाबा साहेब ने एक अस्पृश्य समाज की आवाज़ को देश के सामने लाने के लिए 'मूकनायक' की शुरुआत की थी, और आज देश को फिर ऐसे ही 'नायक' की ज़रूरत है, जो जनता के मुद्दों को उठाये, जनता की आवाज़ को बुलंद करे, जिसे व्यवस्थावादी मीडिया ने 'मूक' कर दिया है।

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)

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