महामारी की तबाही में दिखी संविधान प्रदत्त अधिकार व सुप्रीम कोर्ट के निर्देश अनुपालन की लापरवाही

Coronavirus: चुनाव आयोग संस्थान को हत्या का आरोपी बना दिया जाना चाहिए। क्योंकि संस्थान और सरकार कोरोना के बिगड़ते हालात के लिए जिम्मेदार हैं।

Written By :  Nandita Jha
Published By :  Shreya
Update: 2021-06-10 15:55 GMT

सुप्रीम कोर्ट (कॉन्सेप्ट फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Coronavirus: कोरोना के दूसरी लहर की गंभीर संभावना होने के वावजूद चुनावी रैली किये जाने के साथ वोट की लालच में कुंभ में सैकड़ों की भीड़ को अनुमति दिए जाने पर दायर वाद की सुनवाई के दौरान ये टिप्पणी करते हुए मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस संजीब बेनर्जी और जस्टिस सैंथलकुमार राममूर्ति की एकल पीठ नें कहा "चुनाव आयोग संस्थान को हत्या का आरोपी बना दिया जाना चाहिए। क्योंकि संस्थान और सरकार कोरोना के बिगड़ते हालात के लिए जिम्मेदार हैं।"

आंकड़े की मानें तो प्रत्येक दिन 300 से अधिक व्यक्तियों की मौत कोरोना के कारण हुई। ये तो वे आंकड़ें है जिसकी संभावना की जा रही है वास्तविकता तो कुछ और ही दर्शाती है। नदियों में बहती लाशें बताती है कि कितनी भयानक स्थिति से रही है। मार्च 2020 से भारत कोरोना से जूझ रहा है।भारत ही नहीं बल्कि महाशक्तिशाली देशों में आने वाले देशों में भी इस वायरस खूब तांडव मचाया। अमेरिका और इटली की तबाही हमने देखा। लेकिन वहां की सरकारों द्वारा उचित समय पर की गई व्यवस्था और निगरानी ने उन देशों को संभाल लिया। भारत को भी उन देशों की स्थिति सबक लेना चाहिए था, लेकिन चूक हो गयी!

राज्य सरकारों की विफलता आई सामने

कोरोना महामारी के दरम्यान भारतीय अर्थव्यवस्था का चरमराता ढांचा और राज्य सरकारों की विफलता सामने आयी। साथ ही इस बात से भी नागरिकों का सामना हुआ कि विकास के लिए लंबी दूरी तय करनी होगी। राज्य सरकारों को मूलभूत सुविधाओं पर और ज्यादा ध्यान देना होगा। भारतीय संविधान के भाग iv में नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत राज्यों द्वारा नागरिक हितकारी योजना बनाना उनका प्रथम दायित्व है इसमें किसी प्रकार की कमी भारतीय संविधान के द्वारा नागरिकों को दिए गए मूलाधिकारों का हनन है। इसी मूल अधिकारों के अंतर्गत चिकित्सीय सुविधा है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमामय जीवन जीने का अधिकार दिया गया है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को उचित इलाज की सुविधा भी सम्मलित है। सुप्रीम कोर्ट ने जीवन जीने के अधिकार की व्यख्या में इसके दायरे को समय समय पर वृहत किया है। लेकिन इन दिनों हमने इन अधिकारों का हनन देखा। अस्पतालों की लापरवाही से लेकर ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी तक हर जगह अधिकारों का उल्लंघन किया गया। मरीजों के परिजनों को उनकी जान बचाने के लिए लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद व्यवस्था की कमी और अस्पतालों की लापरवाही के कारण उनको खोना पड़ा।

क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला

1996 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था "हितकारी राज्यों का प्रथम कर्तव्य है कि वे अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करें उन्हें उचित चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराए जाएं जो सरकार के दायित्व अंतर्गत आवयश्क हैं और इसी दायित्व के लिए राज्य सरकारों को अस्पताल की व्यवस्था करना जरूरी है। हाकिम शेख बनाम पश्चिम बंगाल केस में सुप्रीम कोर्ट नें कुछ निर्देश दिए है। उन निर्देशों की महत्वपूर्ण बिंदु थे कि

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में उचित सुविधाएं मौजूद हों ताकि मरीज़ों को तात्कालिक इलाज कर उनकी स्थिति को संभाला जा सके।

ज़िला स्तर के अस्पतालों में भी गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों का इलाज किया जा सके।

समय -समय पर ज़िला अस्पतालों में इलाज की सुविधाओं को बढाया जाए।

राज्य स्तर के अस्पतालों में समुचित बेड की व्यवस्था हो और आकस्मिक समय पर केंद्र से जल्द से जल्द बातचीत कर बेड की व्यवस्था की जाए ,ताकि मरीज़ों की जान बचाई जा सके।

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ज़िला स्वास्थ्य केंद्र या राज्य स्तरीय स्वास्थ्य केंद्र में एम्बुलेंस की सुविधा अनिवार्य है।

एम्बुलेंस में समुचित व्यवस्था होना अनिवार्य है।

1995 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन राज्य सरकारों द्वारा कितना किया गया था यह कोरोना मरीज़ों के इलाज के वक़्त 2020 और 2021 के दरम्यान में देखा है। कहीं बेड नहीं थे, तो कहीं अस्पतालों ने मरीजों को एडमिट करने की जिम्मेवारी नहीं ली। जिसका नतीजा यह हुआ कि कई मरीज़ प्राथमिक उपचार के बगैर दम तोड़ बैठे। वही दूसरी ओर मरीजों से इलाज के नाम पर लाखों रुपए लिए गए और फिर भी उन्हें नही बचाया जा सका।

इस आपदा में कालाबाजारी ने बड़ा रूप ले लिया कभी ऑक्सीजन मुंहमांगी दामों पर बेचा गया, तो कहीं दवाई और इंजेक्शन के लिए मरीज़ों को मुंहमांगी कीमत देने को मजबूर किया गया। बिगड़ते हालात ने तस्वीर साफ कर दिया है,कि राज्य सरकारें अपने दायित्वों को निभाने में चूक गए हैं। साथ ही अदालतों के द्वारा दिये निर्देशों के अनुपालन में भी सतर्कता नही बरती जाती है।

जरूरत है कि सरकारों द्वारा महज़ औपचारिक संविधान शपथ न लेकर व्यवहारिक शपथ लेना ध्येय होना चाहिए। तभी भारत विकसित देशों की श्रेणी में आ पायेगा। वर्ना विकास सिर्फ चुनावी दावों के अलावा सरकारी दफ्तरों की फाइलों में धूल खाते दस्तावेजों में रह जायेगा।

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