अमा ये तो गजब हो गया। सड़क पर निकला तो तेइस साल से कम उम्र के कुछ नौजवान गाना गाते दिखे- देखा है पहली बार, हाथी पे साइकिल सवार। हमने टोक दिया, कहा- ठीक है कभी हाथी पे साइकिल सवार नहीं देखा होगा, लेकिन साइकिल पर हाथी सवार तो देखा ही होगा। नहीं देखा तो सर्कस चले जाओ। फिर गाना तो ये है- देखा है पहली बार साजन की आंखों में प्यार...’ तो काहे गाने टांग तोड़ रहे हो। वो बोले- पता नहीं क्या- समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में डील हो गयी है। हाथी गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा में नहीं उतरेगा तो साइकिल हाथी को राज्यसभा तक पहुंचाएगी। उस हिसाब से तो गाना सही है। हमने फिर टोका- अरे ऐसा पहली बार थोड़ी ही हो रहा है, नेताजी के जमाने में साइकिल पर बैठकर हाथी ने बड़ी लंबी राजनीतिक दूरी तय की थी। वो बात अलग है कि पिछले लोकसभा में हाथी ने अंडा दिया और विधानसभा में भी अपनी इज्जत बचाने में उन्नीस रह गया।
वैसे इस डील ने दिमाग तो हिला ही दिया। अब तक चाचा-भतीजे का छत्तीस का आंकड़ा निपटा नहीं और इधर बुआ-भतीजे एक और एक ग्यारह करने लगे। वो तो भला हो मायावती जी का, जो उन्होंने बता दिया कि गलती से भी एक और एक ग्यारह न समझना। मामला तो सिर्फ इतना है कि तुम मुझे लोकसभा दो, मै तुम्हे राज्यसभा दूंगा। वैसे इस डील से बहनजी की सियासी जागीर को क्या जाने वाला है। भाजपा का समर्थन उन्हें करना नहीं था। उपचुनाव में वो समय वेस्ट करती नहीं। फिर सपा दोनों में से कोई सीट जीत जाती है तो बसपा के समर्थन से जीतेगी। भाजपा जीती तो कौन सा बसपा का प्रत्याशी मैदान में था। सच तो ये है कि जब आज की डेट में हाथी पर सवार होकर एक एमएलसी तक नहीं जीत सकता तो साइकिल पर बिठाकर किसी बसपाई को राज्यसभा तक पहुंचाना ‘अम्बेडकरवाद’ का सबब है।
अखिलेश भैया समझते हैं, लेकिन क्या करें, बुआ का साथ मजबूरी है। इसीलिए होशियारी से बुआ की मदद स्वीकार कर रहे हैं। फिर बुआजी भी तो इटावा के व्यक्ति को ही तो राज्यसभा भेजना चाहती हैं। हां इस बुआ-भतीजे के चक्कर में चाचाजी पर किसी ने चर्चा ही नहीं की। वो भी नेताजी के ट्रेंड किये हुए योद्धा हैं। जहां एक-एक वोट का खेल हो, उनकी भी आजमाइश को कौन कमजोर समझ सकता है। इसीलिए तो हम इस टेम्परेरी समर्थन पर परमानेंट कन्फ्यूज से हो गए हैं। दाग देहलवी का शेर याद आ रहा है- ‘ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं, साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं’।