कितनी बार और अयोध्या! बेहतर है, वक्त रहते काशी-मथुरा सौंप दें

चैन के दिन अभी भी दूर ही हैं। मुसलमान यदि एक नियम स्वीकार कर लें कि कौन इतिहास में पहले आया था, कौन शुरु से काशी और मथुरा में रहा, अत: उसी को स्वामित्व दे दिया जाये। वर्ना तलवार म्यान के बाहर ही चमकेंगी।

Update:2020-12-07 19:29 IST
How often and Ayodhya! Better, hand over Kashi-Mathura in time

के. विक्रम राव

हिन्दू शायद अब प्रौढ़ हो गये। मुसलमान भी बालिग हुए। कल रविवार (6 दिसम्बर 2020) बिना मारपीट के गुजर गया। न तो शौर्य दिवस मना। न यौमे—गम (शोक दिवस), न दुंदुभी, न काले झण्डे। इसी दिन, 28 वर्ष पूर्व, जहीरुद्दीन बाबर का ढांचा अकीदतमंदों ने नेस्तनाबूत कर दिया गया था। फिर विश्वभर में व्यापक विध्वंस हुये। हालांकि कल अयोध्या में खाकीधारी बड़ी तादाद में डटे थे। बेकार हो गये।

मंदिर निर्माण की सरकारी समिति के अध्यक्ष नृपेन्द्र मिश्र पहुंचे थे। सिमेंट, गारद, ईंट की गुणात्मकता को परखने शायद। मंदिर स्थल पर एक पण्डित का ढाबा हैं। वहां चाय की चुस्की लेते अब्दुल रईस ने फलसफा झाड़ा, ''क्या रखा है इन बातों में? सभी तो अपने हैं।''

हां अलबत्ता एक निर्धार दोनों संप्रदायों के अनुयायियों ने किया। विश्व हिन्दू परिषद का मानना है कि गंगातट वाले विश्वनाथ मंदिर और यमुनातट के कृष्ण जन्मभूमि को मूल आस्थावानों को वापस दिलवाया जाये। बाबरी एक्शन समिति ने अपना पुराना इरादा दोहराया कि काशी और मथुरा में आलमगीर औरंगजेब कब्जों की हिफाजत करेंगे।

कौन पहले आया

अर्थात चैन के दिन अभी भी दूर ही हैं। मुसलमान यदि एक नियम स्वीकार कर लें कि कौन इतिहास में पहले आया था, कौन शुरु से काशी और मथुरा में रहा, अत: उसी को स्वामित्व दे दिया जाये। वर्ना तलवार म्यान के बाहर ही चमकेंगी।

अमन की खोज दरकती रहेगी। चिनगारी फिर धधक सकती है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि दुनिया में इस्लामी राज जिन—जिन देशों में रहा है वहां के धर्मस्थलों पर जबरन इबादतगाह निर्मित होते रहे। इस्ताम्बुल (तुर्की) का हाजिया मस्जिद ताजातरीन उदाहरण है।

पहले चर्च था, उस पर मस्जिद बना, फिर संग्राहलय और हाल ही में फिर मस्जिद। सोफिया (बुलगारिया) तथा लंदन में तीन सौ से अधिक नये मस्जिद आदि तोड़कर इस्लामी संपत्ति बनाये गये थे। मुझे यह देखकर अविवेकी मजहबी मतांधता लगी।

अल अक्सा तो विचित्र है। यहां ईसा का जन्मस्थल है। पैगंबर का आगमन स्थल है और यहूदियों के स्वामित्व में आस्थाकेन्द्र है। संघर्ष यहां त्रिकोणीय है। इसका समाधान बस एक ही है। पहले कौन आया था? उसी का दावा स्वीकार हो।

हमीद दलवाई

यहां उल्लेख हो पुणे के मुस्लिम सत्य शोधक संघ के जन्नतनशीन हमीद दलवायी तथा डा. राममनोहर लोहिया की एक कार्ययोजना का। वह भ्रूणावस्था में ही गिर गयी थी। याद कर लें। उस पर दोबारा विचार हो। इस योजना के अनुसार मुस्लिम युवजनों का दल काशी और मथुरा में सत्याग्रह करता कि क्रूर तानाशाह—बादशाह ने अपने अपार सैन्यबल का दुरुपयोग कर, राजमद में अंधे होकर अपनी मजलूम प्रजा के आस्थावाले मौलिक अधिकार का दमन किया। उसे छीना था।

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बदौलते शमशीरे इसलाम ​थोपा। जनविरोधी गुनाह किया था। अत: जनता के मूल अधिकारों को वापस लौटाया जाये। सेक्युलर लोकशाही का यही तकाजा है। वर्ना मौजूदा सत्ता भी यदि मुगलिया ज्यादती जैसी हरकत करे, अपनाये, तो क्या होगा? यह जनवाद बनाम शमशीरे—इसलाम की टक्कर है। तारीख गवाह है कि ऐसे जनोन्मुखी संघर्ष में सदा प्रजा ही जीतती है।

याद करें सीमांत गांधी को

इस संदर्भ में सीमांत गांधी, फख्रे अफगन खान अब्दुल गफ्फार खान की युक्ति याद कर लें : '' हम पठान लोग पहले हिन्दू थे, आर्य थे। फिर मुसलमान बने। मगर हमारी पठान नस्ल और कौम तो हमेशा ही बरकरार रही।'' इसी प्रकार भारतीय भी आर्य थे, बौद्ध बने। फिर मुसलमान बने। ईसाई बने। मगर रहे तो हिन्दुस्तानी। अरब या इस्राइली तो नहीं बने।

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अत: कौमी अमन और धार्मिक सहिष्णुता के लिये सभी लोग इस बुनियादी सिद्धांत को मान लें। वर्ना यूरोप में सिविल वार तथा फौज द्वारा धार्मिक मसले हल होते रहे। यह तरीका भारत की आस्था, परिपाटी तथा रिवायत के विरुद्ध है। गैर—हिन्दू भारतीयों को विचार करना पड़ेगा। वक्त रहते।

K Vikram Rao

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