भाजपा और किसानः खून-खराबा

Lakhimpur Kheri Hinsa: डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने आज अपने लेख में यूपी के लखीमपुर-खीरी में हुए हादसे को लेकर अपने विचार प्रकट किए है। आइए जानते है कि इस मामले पर लेखक का क्या कहना है?

Written By :  Dr. Ved Pratap Vaidik
Published By :  Chitra Singh
Update: 2021-10-07 03:29 GMT

लखीमपुर खीरी घटना की तस्वीर 

Lakhimpur Kheri Hinsa: लखीमपुर-खीरी में जो कुछ हुआ, वह दर्दनाक तो है ही, शर्मनाक भी है। शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे किसानों पर कोई मोटर गाड़ियाँ चढ़ा दे, उनकी जान ले ले और उन्हें घायल कर दे। ऐसा जघन्य कुकर्म तो कोई डाकू या आतंकवादी भी नहीं करना चाहेगा। लेकिन यह एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के काफिले ने किया। वह हत्यारी कार तो उस गृहमंत्री की ही थी। गृहमंत्री का कहना है कि उन कारों में न तो वे खुद थे और न ही उनका बेटा था । लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि मंत्री का बेटा ही वह कार चला रहा था। लोगों पर कार चढ़ाने के बाद वह वहां से भाग निकला। यह तो जाँच से पता चलेगा कि किसानों पर कारों से जानलेवा हमला किन्होंने किया या किनके इशारों पर किया गया ? लेकिन यह भी सत्य है कि कोई मामूली ड्राइवर इस तरह का भीषण हमला क्यों करेगा ? उसकी हिम्मत कैसी पड़ेगी ?

लेकिन देखिए, किस्मत का खेल कि उन कारों के दो ड्राइवर तो तत्काल मारे गए और किसानों की भीड़ ने भाजपा के दो अन्य कार्यकर्त्ताओं को भी तत्काल मौत के घाट उतार दिया। इसे यों भी कहा जा रहा है कि जैसे को तैसा हो गया। चार लोग मंत्री के मारे गए, क्योंकि मंत्री के लोगों ने किसानों के चार लोग मार दिए थे। लेकिन दोनों पक्षों ने खून-खराबे का यह रास्ता चुना, यह दोनों पक्षों की निकृष्टता का सूचक है।

यह थोड़े संतोष का विषय है कि किसान नेता राकेश टिकैत की मध्यस्थता के कारण हताहत किसानों और मंत्रिपक्ष के लोगों को उ.प्र. की सरकार मोटा मुआवजा और नौकरी देने पर राजी हो गई है। लेकिन आश्चर्य है कि स्थानीय पुलिस हत्याकांड को होते हुए देखती रही और वह कुछ न कर सकी। जाहिर है कि इस हत्याकांड से सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं, सारे देश में लोगों ने गहरा धक्का महसूस किया है।

कृषि-कानूनों को डेढ़ साल तक ताक पर रखे जाने के बावजूद किसान नेता रास्ते रोक रहे हैं। हिंसा-प्रतिहिंसा पर उतारु हो रहे हैं। जाहिर है कि बड़े किसानों के इस आंदोलन को आम जनता और औसत किसानों का जैसा समर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिल रहा है। फिर भी उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी कि वे इतने लंबे समय से अपनी टेक पर डटे हुए हैं। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार जरुर है लेकिन रास्ते रोकने से आम लोगों को जो असुविधाएं हो रही हैं, उनके कारण इस आंदोलन की छवि पर आंच आ रही है? सर्वोच्च न्यायालय को इस पर अप्रिय टिप्पणी भी करनी पड़ी हैं।

उधर उप्र सरकार के आचरण पर भी सवाल उठ रहे हैं। उसने कई विपक्षी नेताओं को भी लखीमपुर जाने से रोका है। कुछ को गिरफ्तार कर लिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने केंद्रीय मंत्री और पार्टी-कार्यकर्त्ताओं के साथ भी निर्भीकतापूर्वक पेश आना चाहिए। उन्हें कुछ माह बाद ही वोट मांगने के लिए जनता के सामने अपनी झोली पसारनी है।

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