अम्मा

अम्मा आजीवन न सिर्फ अपने बच्चों बल्कि दूसरों के बच्चों के हित के लिए लड़ती रहीं। हर एक की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानने में उन्हें देर नहीं लगती थी।  आज मातृ दिवस पर अम्मा की स्मृतियों को नमन।  

Update:2020-05-10 11:56 IST

रामकृष्ण वाजपेयी

मैने जब होश सम्हाला अम्मा को बीमार पाया। बचपन की एक महीन से याद कानपुर के पी रोड पर चौथी या पांचवीं गली में हम लोग रहते थे। गली क्या खूब चौड़ी सड़क थी लेकिन मेन रोड से कनेक्ट होने के कारण उसे गली कहते थे। हां तो जहां तक मुझे याद है मै उस समय चार साल के लगभग का रहा होऊंगा। अम्मा सड़क के किनारे बेहोश होकर गिर पड़ी थीं। बाद में पता चला मेरी छोटी बहन होने वाली थी वह छह महीने में ही हो गई थी वह ज्यादा दिन जिंदा नहीं रही। उसकी डेथ हो गई लेकिन मेरे बालमन पर यह असर पड़ा कि मै अक्सर रात में रोते हुए उठता था कि मेरी अम्मा मर गई। इसके लगभग एक, डेढ़ साल बाद 30 जून 1971 को मेरी बहन प्रतिभा का जन्म हुआ और जब मै लगभग आठ साल का था तो 1974 में एक और बहन प्रज्ञा का जन्म हुआ। बड़े भैया मुझसे करीब दस साल बड़े थे।

सबको गरम खाना खिलाना

अम्मा में एक खासियत थी कि जब जिसे भूख लगती थी वह तत्काल गरम खाना बनाकर देती थीं। बाकी घर की सजावट आदि का उन्हें उतना शौक नहीं था पिताजी कानपुर दैनिक जागरण में थे उनकी रात की ड्यूटी रहा करती थी। अम्मा को याद तो मैने किताबें पढ़ते देखा या फिर मोहल्ले की महिला मंडली के साथ बातें करते देखा।

कानपुर में जिस मकान में हम रहते थे वह करीब 600 गज का मकान था जिसमें 18 किरायेदार थे। हम लोग तीसरी मंजिल पर दो कमरों के मकान में रहते थे। घर के सामने विशाल छत थी वही हमलोगों के खेल का मैदान था। वहीं पतंग भी उड़ाया करते थे।

दादी का जाना

1974 में ही मेरी दादी का जून में निधन हो गया। और इसके बाद बाबा हम लोगों को मतलब दोनो बहनें अम्मा और मैं, को हरिद्वार लिवा ले गए। अम्मा ने कानपुर में एक स्कूल में कुछ दिन पढ़ाया भी था। खैर कनखल हरिद्वार में हमारा मकान जिस बिल्डिंग में था उसमें एक कोने पर चक्की थी जिस कराण उस बिल्डिंग का नाम इंजन वाली हवेली था। उस समय दक्ष प्रजापति मंदिर को जाने वाली सड़क पर वह आखिरी बिल्डिंग थी।

उसमें पहली मंजिल पर पहला घर शकुंतला ताई जी का था, दूसरा हमारा था, तीसरा शांति बहनजी का, चौथा सुशील जी का, पांचवां सुंदर का, छठा खजांची साहब का, सातवां सूद जी, आठवां सूरी जी का और नवां खजानचंद का। और इन सारे घरों को जोड़ने वाला एक छज्जा था। जिस पर इस कोने से उस कोने तक मै अपनी बहनों को साथ लेकर दौड़ता था।

पिताजी को चोट लगना

वास्तव में हरिद्वार की यादें ज्यादा इसलिए भी हैं क्योंकि मैने ठीक से होश यहीं संभाला। कनखल में उस समय बंदर बहुत ज्यादा होते थे। ज्यादातर तांगे ही चला करते थे। मैने तब तक स्कूल जाना शुरू नहीं किया था। हम लोग इस बीच एक दो कानपुर गए।

बाबा के कहने पर पी रोड वाला घर बदलकर पांडुनगर में चौथी मंजिल पर घर लिया। उसमें तीसरी मंजिल पर शिफ्ट होना था। हमलोग कनखल वापस आ गए थे, तभी कानपुर से खबर आई कि पिताजी छत से गिर गए हैं हम लोग वापस कानपुर गए।

एक बार फिर घर बदला

पिताजी के हिप के मसल्स फ्रैक्चर हो गए थे डॉक्टर ने कंप्लीट बेड रेस्ट बताया था। तीन महीने पिताजी बिस्तर पर ही रहे। इस बीच हम लोगों ने गीतानगर में एक और घर किराए पर लिया। इस घर की मकान मालकिन सरला बुआ दूर से हमारी रिश्तेदारी में आती थीं।

मकान के आगे के पोर्शन में वह खुद रहती थीं। पीछे के पोर्शन में हम लोग रहने लगे। यहां कर्मकेतु स्कूल में मेरा दाखिला सीधे चौथी कक्षा में हो गया। कुछ दिन ठीक ठाक बीते तभी बाबा फिर आए और हम लोग फिर कनखल पहुंच गए। तब तक 1976 आ गया था।

अम्मा के विरोध के बावजूद पिताजी ने दिया इस्तीफा

मुझे ठीक से याद तो नहीं सुना है बाबा ने पिताजी से नौकरी छोड़ने को कहा। उसी समय पिताजी का ट्रांसफर संपादक बनाकर दैनिक जागरण गोरखपुर हुआ। पिताजी वहां चले गए। मै बाबा अम्मा और दोनो बहनों के साथ कनखल आ गया। अगस्त में पिताजी ने अम्मा के विरोध के बावजूद दैनिक जागरण से इस्तीफा दे दिया।

इसके बाद पिताजी भी कनखल आ गए। अगस्त 76 में मेरा दाखिला सनातन धर्म हायर सेकंड्री स्कूल सतीघाट पर कक्षा 6 में हो गया।

शुरुआती मेरी पढ़ाई घर में ही हुई थी और वह भी केवल हिन्दी और गणित की। इसके अलावा मुझे कुछ आता ही नहीं था पता भी नहीं था। कानपुर में कर्मकेतु में पीरियड वाइज पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। यहां पीरियड वाइज टीचर बदल रहे थे। मेरा पूरा समीकरण गड़बड़ा गया। ऊपर से बाबा ने संस्कृत पढ़ानी शुरू कर दी। जिसमें सिर्फ मार खानी होती थी।

अम्मा की व्यस्तता

अम्मा घर के कामकाज व बहनों को सम्हालने में व्यस्त रहती थीं। मेरी स्थिति लध्धड़ और घोंचू किस्म के लड़के की हो गई। कहां जोड़ घटाव गुणा भाग सीखा था कहां प्रमेय निर्मेय की आफत गले पड़ गई। उसमें भी कॉस थीटा, साइन थीटा समझ से ही परे था। किसी तरह रो झींककर पास होता रहा।

कक्षा नौ में आया तो बीमार पड़ गया 15 दिन अस्पताल में भरती रहा। साल न खराब हो जाए इसलिए आर्टसाइट में शिफ्ट कर गया। लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था कक्षा नौ तो पास हो गया लेकिन दसवीं में जाने के साथ अम्मा की तबियत बिगड़ गई। कनखल में डॉक्टरों ने जवाब दे दिया।

बड़े शहर में दिखाने के लिए कानपुर आए क्योंकि कानपुर में भैया भी थे। अम्मा क्यों बीमार पड़ी इसकी कहानी फिर कभी। लेकिन हालात ऐसे बिगड़े कि पिताजी को फिर से जागरण में नए सिरे से नौकरी ज्वाइन करनी पड़ी। उनका लखनऊ ट्रांसफर हो गया। मेरा एक साल बर्बाद हो गया था। लखनऊ में फिर से दसवीं में दाखिला हुआ और पढ़ाई शुरू हुई।

अम्मा को समझ नहीं पाया

इस पूरे प्रकरण में घटनाएं इतनी तेजी से घटित हुईं कि अम्मा को समझने का मौका ही नहीं मिला। लखनऊ में पता चला कि अम्मा को हार्ट और डायबिटीज है। यहीं अम्मा से बातचीत भी शुरू हुई।

अम्मा ने 1948 में देहरादून से हाईस्कूल पास किया था। रामचरित मानस उन्हें पूरी कंठस्थ थी। पिताजी जब इलाहाबाद में सरस्वती प्रेस में थे तब अम्मा ने लालबहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री के साथ कई राजनीतिक मूवमेंट में हिस्सा लिया था। वह लोकसेवक मंडल की सदस्य रहीं। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन स्मारक समिति की वह उपाध्यक्ष रहीं।

अम्मा जैसा कोई नहीं

अम्मा की तार्किक क्षमता बेजोड़ थी। वह सामयिक विषयों पर कलम भी चलाया करती थीं। रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान वह विहिप की सत्संग मंडली से लंबे समय तक जुड़ी रहीं। अम्मा आजीवन न सिर्फ अपने बच्चों बल्कि दूसरों के बच्चों के हित के लिए लड़ती रहीं। हर एक की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानने में उन्हें देर नहीं लगती थी। आज मातृ दिवस पर अम्मा की स्मृतियों को नमन।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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