पटना: अलमस्त और फक्कड़ कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके अंगिका और मैथिली भाषा के जाने माने कवि भगवान प्रलय का मानना है कि आज के संदर्भ में साहित्य लिखने वाला व्यक्ति अगर लिखने की आदत बना लेगा तो उसे भूखे ही रहना पड़ेगा।
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बिहार के कटिहार जिले के कुरसेला निवासी प्रलय जवानी के दिनों में दीवार पर पेंटिंग कर और सिनेमा के पोस्टर बनाकर जीवनयापन करते रहे, लेकिन उन्होंने कविता लिखना और काव्यपाठ करना नहीं छोड़ा।
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कवि तथा गीतकार प्रलय आज के दौर में देश, समाज में हो रहे बिखराव को एकसूत्र में पिरोने के लिए लोकगीत के माध्यम से लंबे अरसे से अलख जगा रहे हैं। असमिया गीतों में जो स्थान भूपेन हजारिका का और भोजपुरी गीतों में भिखारी ठाकुर को प्राप्त है, वही स्थान अंगिका गीतों में भगवान प्रलय को प्राप्त है।
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बचपन से ही गीतों के प्रति लगाव रखने वाले प्रलय की सादगी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कभी खुद को कवि नहीं माना। वे कहते हैं, "मैं कवि हूं या नहीं हूं, दूसरे लोग मुझे कवि मानते हैं या नहीं, मुझे पता नहीं है, मगर मैं इतना जानता हूं कि मैं अपने मित्रों में प्रिय हूं।"
इन दिनों लोकगाथा 'महुआ घटवारिन' की रचना में लगे प्रलय को इस बात का अफसोस है कि उनकी कविताएं बिहार और देश में तो खूब चर्चित रही हैं, लेकिन पैसे के अभाव में अब तक उनका कविता संग्रह या अन्य कोई रचना पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हो सकी है।
किसी भी कवि सम्मेलन में श्रोताओं को घंटों बांधे रखने की क्षमता रखने वाले प्रलय की सादगी हर किसी को आकर्षित करती है। देशभक्ति के स्वर के साथ अंगक्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक विषमताओं पर लिखी उनकी कविताएं कवि सम्मेलनों में श्रोताओं को पसंद आती हैं, लेकिन उनकी अधिकांश कविताएं नाारी पर अत्याचार के इर्द-गिर्द घूमती हैं।
चार दशकों से रचनाकर्म में सक्रिय प्रलय में कवि सम्मेलन में श्रोताओं और दर्शकों को बांध रखने की क्षमता है। उनके गीत और कविताओं के अनेक रंग हैं। प्रलय आईएएनएस से कहते हैं, "लोगों का स्नेह तो मुझे जरूर मिला, मगर अर्थाभाव के कारण मेरी एक भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाई है।"
कवि भावुक होते हुए कहते हैं, "कुछ साल पहले जब मैंने अपनी पूरी व्यथा गीत और कविता में सुना डाली, तब कटिहार की जिलाधिकारी डॉ. अंशुली आर्या ने मुझे एक अदद इंदिरा आवास मुहैया कराया था। आज यही इंदिरा आवास मेरा ठिकाना है।"
कटिहार जिले में कुरसेला के बलथी महेशपुर में सन् 1942 में जन्मे लोककवि भगवान प्रलय का जीवन आरंभ से ही संघर्षमय रहा और आज भी संघर्ष कर रहे हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि मजबूत नहीं थी। पिता मजदूरी कर किसी तरह बच्चों का पालन करते थे। पैसे के अभाव में उनकी शिक्षा-दीक्षा भी ठीक से नहीं हो पाई।
प्रलय शुरुआत में भजन मंडलियों में गाते थे। इसके बाद कविता के प्रति उनके जुनून ने आज उन्हें एक ख्यातिप्राप्त कवि और गीतकार बना दिया है। वे बताते हैं, "प्रारंभ में सिलीगुड़ी में एक ऑडियो कैसेट निर्माता नारायण दत्ता ने अंगिका भाषा में मेरी कविताओं की कैसेट रिलीज की थी। यह कैसेट खूब बिकी थी और लोग मुझे जानने लगे।"
कवि को बिहार सरकार के राजभाषा विभाग से लोक कलाकारों के लिए पेंशन योजना के तहत प्रत्येक माह पांच सौ रुपये मिलते हैं। कवि प्रलय बिनोवा भावे के भूदान यात्रा में शिरकत करने के साथ-साथ महात्मा गांधी की सहयोगी निर्मला देशपांडे के साथ भी काम कर चुके हैं।
हाल ही में अंग मदद फाउंडेशन ने स्वतंत्रता सेनानी शुभकरण चूड़ीवाला की याद में दिए जाने जानेवाले तिलकामांझी राष्ट्रीय सम्मान से कवि प्रलय को सम्मानित किया गया है। प्रलय को कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, लेकिन वे इससे ज्यादा महत्व लोगों के प्रेम को देते हैं।
नई पीढ़ी के कवियों को संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि इन्हें आज की अंग्रेजियत' पर लिखना चाहिए। अंग्रेज जब गए थे, तब यहां के लोगों ने सोचा था कि अब भारत आजाद हो गया। मगर आज भी अंग्रेजियत कायम है, जब तक इसे दूर नहीं किया जाएगा, तब तक गांधी के सपने को पूरा नहीं किया जा सकता।
--आईएएनएस