प्रेम जो हाट बिकाय

आज भले ही संत कबीर की सभी उक्तियां चिर प्रासंगिकता की ओर बढ़ रही हैं, उस पर अमल ज़रूरी दिख रहा है, पर प्रेम को लेकर कबीर की इस बानी के ठीक उलट सब कुछ दिखाई पड़ रहा है। प्रेम अब बाड़ी में उपजने लगा है। प्रेम अब हाट में बिकने लगा है।

Update:2021-02-13 21:09 IST
Valentine's Day: हेलमेट के नीचे खूबसूरत आंखे, ऐसा हुआ दीवाना, बन गई हमसफ़र-(courtesy-social media)

योगेश मिश्रा

(Yogesh Mishra)

कबीर ने बहुत पहले कहा था- प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय....।

आज भले ही संत कबीर की सभी उक्तियां चिर प्रासंगिकता की ओर बढ़ रही है, उस पर अमल ज़रूरी दिख रहा है, पर प्रेम को लेकर कबीर की इस बानी के ठीक उलट सब कुछ दिखाई पड़ रहा है। प्रेम अब बाड़ी में उपजने लगा है। प्रेम अब हाट में बिकने लगा है। कबीर के ढाई आखर प्रेम की यह स्थिति पश्चिम से आयातित ‘वैलेंटाइन डे’ की ओट में हुई है। ऐसा नहीं कि प्रणय और प्रेम के उत्सव हमारी संस्कृति में नहीं थे।

हमारे यहां पूरा बसंत पे्रमकाल कहा जाता है। बसंतोत्सव कहा जाता था। इसमें होली के दिन के आसपास के बसंतपंचमी के दिन को मदनोत्सव तक कहते हैं। ‘मात्स्यसूक्त’ और ‘हरिभक्ति विलास’ आदि ग्रंथों में इस दिन बसंत की शुरुआत मानते हैं। काम शास्त्र में ‘सुवसंतक’ नामक उत्सव की चर्चा है। फिर भी हमारे यहां प्रेम में बाज़ार को जगह नहीं मिली थी। प्रेम दिल का भाव था। पर पश्चिम ने, वैश्वीकरण ने, जो भाव दिल में उपजना चाहिए उसे बाज़ार में खड़ा कर दिया है।

गांव-गांव तक प्रेम की सजी दुकानें आम हो गई हैं

कभी ‘वैलेंटाइन डे’ के समय देखिये तो गली-गली, शहर-शहर, मोहल्ले-मोहल्ले अब तो गांव-गांव तक प्रेम की सजी दुकानें आम हो गई हैं। प्रेम अपनी निजता खोता जा रहा है। प्रेम का बाजार भावना की जगह देह पर आकर स्थित हो रहा है। मेकअप और ब्रेकअप वाले इस ‘लव’ उर्फ प्रेम में दिल सिर्फ उपहार में दिये जाने वाले प्रतीक के अलावा कहीं नहीं रहता है।

प्रेम का कारोबार आभासी दुनिया में भी फलने-फूलने लगा है। साइबर ‘स्पेस’ ने प्रेम के मामले में भूगोल की पारंपरिक सरहदें तोड़ दी हैं। इश्क फरमाने का स्पेस बढ़ गया है। प्रेम अब बंधन, जरूरत और देह का त्रिकोण बनकर रह गया है। कहा जाता है कि तकनीक विचारों से जन्मती है। लेकिन तकनीक ने प्रेम की अब तक की सारी धारणाओं को बदलकर रख दिया है। यह सिर्फ भारत में नहीं, पूरी दुनिया में हुआ है। ब्रिटिश दार्शनिक बर्टेंड रसेल ने कभी कहा था कि - ”इश्क का फूल अपनी बस्ती की फुलवारी में ही फूलता है।“ पर अब इश्क ने सरहद की सीमाएं भी लांघ ली हैं।

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प्रतिक्रिया प्रेमी युगल के बीच भी, निहारने और देखने वालों के बीच भी

प्रेम के प्रतीक अब प्रतिक्रिया का स्वरूप ग्रहण करने लगे हैं। यह प्रतिक्रिया प्रेमी युगल के बीच भी है और प्रेम करने वालों को निहारने और देखने वालों के बीच भी है। प्रतिक्रियाओं का ही नतीजा है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में यकीन करने वाले संगठनों को प्रेमी युगलों के खिलाफ गाहे-बगाहे जद्दोजहद पर उतरना पड़ता है। आमतौर पर यह एक रुढ़ सत्य है कि सच एक होता है पर प्रेम के इस बाज़ार-व्यापार और नए बने समाज में दोनों तबके सच हैं। प्रेम करने वाले भी और इस उत्सव के खिलाफ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाते हुए उनका विरोध करने वाले भी। जमात के लिहाज से देखें और समझें तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का पलड़ा भारी है। तभी तो कोच्चि के काफी शाप पर किए गए हमले के विरोध में प्यार को अभिव्यक्त करने की आज़ादी के लिए युवाओं के एक समूह द्वारा कोच्चि शहर में ‘किस-डे’ के आयोजन को भले ही आभासी दुनिया में व्यापक समर्थन मिला हो, पर समाज में उसे समर्थन हासिल नहीं हो पाया।

आलिंगन और चुंबन की इस प्रक्रिया में नर्वस सिस्टम अच्छा होता है

भारतीय सामाजिक परिवेश में ‘चुंबन’ एकांतिक क्षणों का स्वर है। प्रेम की अनुभूति की व्यंजना है। पर ऐसी व्यंजना नहीं है, जिसमें तीसरे के लिए कोई जगह हो। ‘किस’ करने की प्रक्रिया में आलिंगन की मुद्रा पहले होती है। विज्ञान यह पुष्ट करता है कि आलिंगन और चुंबन की इस प्रक्रिया में नर्वस सिस्टम अच्छा होता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। श्वेत रक्त कणिकाओं के उत्पादन को संतुलित करने वाला थाइमस ग्लैंड सक्रिय होता है। न्यूरोट्राफिंस हार्मोन भी सक्रिय होता है, पर यह सब होने के लिए एकांत जरूरी है। अगर ऐसा नहीं है तो शरीर में आक्सीटोसिन हार्मोन बढ़ने लगता है, जिससे प्रेमी युगल के बीच प्यार की बेकरारी गायब होने लगती है और वे ब्रेकअप की तरफ बढ़ने लगते हैं।

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वैलेंटाइन वीक के छठे दिन किस डे

रोज़ डे, प्रपोज़ डे, चाकलेट डे, टेडी बियर डे, प्रामिस डे और हग डे के बाद वैलेंटाइन वीक के छठे दिन किस डे मनाने का पश्चिम में चलन है। लेकिन कोच्चि में युवाओं के फ्री थिंकर्स ग्रुप ने इस दिन का आयोजन सिर्फ इसलिये किया, क्योंकि भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने एक कैफे में तोड़फोड़ मचाई थी। कैफ़े पर आरोप था कि वहां डेटिंग की जाती है। अश्लीलता होती है। भाजयुमो कार्यकर्ताओं की नाराज़गी प्रेम को बाज़ार की वस्तु बनाने को लेकर है। नई पीढ़ी का प्यार काॅफी डे प्यार है, गार्डन प्यार है, जो इन्हीं जगहों पर शुरू और यहीं खत्म होता है। इनका प्यार अस्थाई है।

हर प्रेम की अपनी यात्रा होती है

हर प्रेम की अपनी यात्रा होती है। होनी भी चाहिए। प्रेमी की भी अपनी यात्रा होती है। होनी भी चाहिए। पर यह यात्रा इतनी अस्थाई हो कि साइबर कैफ़े, सीसीडी और गार्डन से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाए तो किसी को भी गुस्सा आना लाज़ि़मी है। यही नहीं, जब इन जगहों पर कोई नौजवान आलिंगनबद्ध और अश्लील हरकतों में जुटे युवक-युवती को देखता है तो उसके मन में प्रतिक्रिया का होना स्वाभाविक है। यह प्रतिक्रिया सचमुच गुस्सा भी हो सकती है, क्योंकि आम नौजवान आज भी जिस प्रेम को जानता है, उसमें प्यार आज़ाद करता है, बांधता नहीं है। वह परिवर्तनगामी और प्रगतिशील बनाता है। जबकि आज का प्रेममय दौर एक ऐसी असुविधा पैदा करता है, जिससे टकराए बिना आगे बढ़ना असंभव है, क्योकि आज के लव उर्फ प्रेम का आशय आम तौर पर उस परकीया प्रेम से है, जिसमें देह की प्राप्ति एक अनिवार्य तत्व है।

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लवगुरु और टीवी सीरियल प्रेम नहीं सिखा सकते

ब्वायफ्रेंड-गर्लफ्रेंड स्टेटस सिंबल नहीं होते थे। लेकिन आज हैं। फाइनेंस कंपनियों की तरह प्रेम के टिप्स बाज़ार में नहीं हासिल होते। बाज़ार से प्रेम खरीदा नहीं जा सकता। लवगुरु और टीवी सीरियल प्रेम नहीं सिखा सकते। यही नहीं, सीसीडी, साइबर कैफ़े और गार्डन में प्रेम कर रहे युवाओं की प्रेम के मामले में गति दिल दहलाने वाली होती है। यह गति किसी को अखर सकती है। मसलन, आपके बगल से कोई नौजवान फर्राटा भरती हुई मोटरसाइकिल से अपनी जान हथेली पर लेकर तेजी से निकलता है, तो वह आपसे कुछ नहीं ले जाता।

लेकिन आम तौर पर अनायास आपके मुंह से उसके लिए भद्र शब्द नहीं निकलते। मैं प्रेम के खिलाफ लट्ठधारी प्रतिक्रियावादियों का पक्षधर नहीं हूँ, पर अनायास मुंह से भद्र शब्द न निकले, इस पर लगाम लगा पाना भी एक कृत्रिमता ही कही जाएगी। असल में जहां कृत्रिमता होती है, वहां शब्दों से लेकर भावों तक प्रतिस्थापन मौजूद होता है। हमारे समाज में प्यार मनुष्य का अंदरूनी हिस्सा है। प्रेम और सेक्स हमारे व्यक्तिगत मामले हैं, इन्हें अपने तक सीमित रखना हमारी संस्कृति है।

उत्तेजना ज़रूरत का अंत कर देती है

प्यार का मतलब एक कप काफी पीना और किताबी बातें करना, फिल्म देखना और साथ-साथ कुछ करने की कवायद या फिर जोश और जुनून ही नहीं है। जुनून उत्तेजना जनता है और उत्तेजना ज़रूरत का अंत कर देती है। यही वजह है कि प्रेम को स्थूलता और देह में देखकर भी उसे देहातीत और कालातीत करने की परम्परा है। प्रेम से सराबोर शरीर कई बार गतिशील और जीवंत होकर भी पत्थर बन जाते हैं। कई बार निरे पत्थर मानवीय आकारों से उबर कर कसमसाती मानवीय अनुभूतियों से भर उठते हैं। लेकिन आज के इस ‘वैलेंटाइन’ प्रेम के दौर में यह सब कुछ नदारद है। कहा जाए तो पे्रम के लिहाज से 19वीं शताब्दी सर्वाधिक उर्वर थी। 20वीं शताब्दी में प्रेम ने सूक्ष्म से स्थूल तक की यात्रा पूरी की। पर 21वीं शताब्दी में प्रेम का चेहरा ऐसा खूसट और लोलुप है, जिसके पास इफरात धन है। जो अपनी कामनाओं की आग में हर उस आदमी को भस्म कर देना चाहता है, जो उसके प्रगाढ़ संपर्क में है।

रोमांटिकता एक गहरी मानवीय प्यास

21वीं शताब्दी में रोमांटिकता नदारद है। रोमांटिकता एक गहरी मानवीय प्यास, जो भिन्न-भिन्न धाराओं में फूटती है। रोमांटिकता में नायकत्व का उत्कर्ष है, जो संस्कार देती है, नैतिकता बुनती है, प्रतिबद्धता जिसका समावेशी पुट है। पूरा वैदिक साहित्य पढ़िए। रामायण महाभारत सरीखे प्रबंध काव्य पढ़िए। पुराण पढ़ डालिए, कहीं आपको सेक्स कोई भी समस्या पैदा करता नज़र नहीं आता। ऐसा नहीं है कि उस समय प्रेम नहीं था। सेक्स नहीं था। वहीं आज का प्रेम सिर्फ युगल को छोड़ सबके लिए समस्या पैदा कर रहा हो तो प्रतिक्रियाओं से उसे निजात कैसे मिल सकती है। यही वजह है कि कभी कोच्चि में डेटिंग करने वालों से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पहरुए दो-दो हाथ करने उतरते हैं तो वैलेंटाइन डे पर पूरे देश में प्रेम करने वालों की जमात और उनसे नफरत करने वालों की कतार, आमने-सामने खड़ी दिखती है।

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प्रेमी-प्रेमिकाओं की जमात के खिलाफ प्रणय विरोधी मातृ दस्ता

देश-विदेश के कई कोनों में अब ‘अन-वैलेंटाइन डे’ मनाए जाने की मांग जोर पकड़ रही है। गार्जियन अखबार के स्तंभकार चार्ली बुकर इस प्रेम के विरोध को संस्कृति से इतर ले जाते हैं। वह कहते हैं कि ‘वैलेंटाइन डे’ अकेला ऐसा पर्व है, जो दिमागी बीमारी को समर्पित है। लोग फूल भेजेंगे, विज्ञापन छपवाएंगे, रेस्त्रां बुक कराएंगे, यह सारा तमाशा उन लोगों का तो दिल जलाएगा ही, जो अकेले हैं या जिनके दिल टूटे हैं। पूर्वाेत्तर भारत में भी सिर्फ दो साल पहले आज के प्रेमी-प्रेमिकाओं की जमात के खिलाफ प्रणय विरोधी मातृ दस्ते ने भी कम कोहराम नहीं मचाया था। कीथल फांबी और अपूनबा लूप की अगुवाई में भूमिगत गुटों की तर्ज पर मणिपुर में अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे रेस्टोरेंटों को चिह्नित करके निशाना बनाया गया। रोमांटिक मेल-मुलाकातों के लिए ऊंची कुर्सियों, मद्धिम रोशनी बिखेर कर रूमानी माहौल बनाने वाले रेस्टोरेंट मालिक नैतिकता की निगहबान बनी इन महिलाओं को नागवार गुजरे थे। उसका असर भी हुआ।

प्रेम के बन रहे बड़े बाजार

हीर-रांझा, शीरी-फरहाद, सोनी-महिवाल, लैला-मजनूं, सलीम-अनारकली, ढोला-मारू, रूपमती-राजबहादुर, मूमल-महेंद्र के प्रेम वाले देश में ऐसा प्रेम स्वीकार नहीं हो सकता है, क्योंकि लोग यहां पटना के प्रोफेसर मटुकनाथ और शिष्या जूली, हरियाणा के चांद और फ़िज़ा की प्रेम कहानियों के ऐसे गवाह हैं, जहां प्रेम देने की कुर्बानी नहीं, पाने की लालसा से ग्रस्त दिखता है। इसलिए कोच्चि के कैफे में डेटिंग के विरोध को भी सिर्फ विरोध के नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए।

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प्रेम के बन रहे बड़े बाजार, आभासी दुनिया के प्रेम, प्रेम के नाम पर देह तक पहुंचने के उपक्रम और फिर प्रेम में धोखे की लगातार बढ़ती कहानियों के खिलाफ गुस्सा भी कहा जा सकता है। इस गुस्से को समर्थन भले ही न दिया जाए, पर खारिज भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रेम की यात्रा इतनी छोटी है कि उसकी उत्तेजना भारतीय समाज में मनुष्य के लिए जीवन, आत्मा और शरीर को लेकर सदियों से चली आ रही पहेली का बिना कोई हल पाए अंत कर देती है। प्रेम का अंत।

(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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