Kota Students Suicide: लाल होता यह आकाश, कोटा में 23 वीं आत्महत्या

Kota Students Suicide: हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी अधिक क्रूर है कि युवा मन वहां आशंका के बीच रहता है और अपने उन्हीं रास्तों पर से जिन पर चलने के लिए वे अपने-अपने घरों से सोच कर आए थे, वे उन पर से बार-बार लौटते हैं, फिर चलते हैं, फिर लौटते हैं लेकिन अंत में उनकी मानसिक, भावात्मक प्रताड़ना उनके आत्मविश्वास को तोड़ कर रख देती हैं।

Update:2023-09-04 09:53 IST
Kota Students Suicide (photo: social media )

Kota Students Suicide: प्रसिद्ध उपन्यासकार और कहानीकार डॉ सूर्यबाला की कविता 'दूज का टीका' मैंने रक्षाबंधन पर पढ़ी तो मैं उसे उससे ही जोड़कर यहां पढ़ रही हूं-

'भाई के बहन से

बहन से भाई के

शहर से शहर तक

टेरती बुलाती है

आंख भर मोती

और अंजुरी में फूल लिए

बावली बहनें झमकती चली आती हैं

क्या तूने...? या तूने... या तूने....

हमें आवाज लगाई है?

हां मैंने ....और मैंने ...और मैंने भी

की प्रतिध्वनि आई है!

ओढ़नी तितलियों की

छोड़ती बयारें...

आज बहुत पास, बहुत पास

मेरे आई हैं।

अपने कक्षा पांच वाले बस्ते से निकाल कर

छुटके भाई के हाथों में

थमाया था जो मोर

आज फिर पंख छितराकर नाचा है

सावनी बदलियां उमड़- घुमड़ छाई है....

अपना कुटुंब

आज सावन बन बरसा है!'

डॉक्टर सूर्यबाला की इस कविता को पढ़ने के साथ ही मुझे उस खबर की याद आ गई जिसमें अभी एक सप्ताह के भीतर ही कोटा में तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली। उनकी बहनों का दर्द मुझे इस कविता में महसूस हो रहा था। उनमें से एक छात्र जो कि वहां अपनी नानी के साथ रहता था, ने अपने क्लास टेस्ट को देने के बाद पांचवी मंजिल से ऊपर, छठी मंजिल पर जाकर आत्महत्या कर ली। यह इस वर्ष की कोटा में 23 वीं आत्महत्या थी किसी छात्र के द्वारा। आखिर क्यों ऐसा हो रहा है? क्या कोटा सुसाइड नगरी बनती जा रही है ? क्या कोटा जो कि अभी तक शिक्षा का हब माना जाता था उसका आकाश अब नीले रंग की जगह लाल रंग से रंगता जा रहा है। यह , वह आकाश बनता जा रहा है जो छात्रों के इंद्रधनुषी सपनों को लील कर, उनकी जिंदगी को खत्म होते देख रहा है।

एक रपट के मुताबिक यहां कोटा का कोचिंग बिजनेस सालाना 5,000 करोड़ रुपये तक का है। यहां कोचिंग के छह बड़े सेंटर हैं जिनमें से हर एक में 5,000 से ज्यादा फुल-टाइम स्टूडेंट्स हैं। बहुत सारे छोटे कोचिंग संस्थान भी हैं। इन कोचिंग सेंटर्स की सालाना फीस 40,000 से 1.3 लाख रुपये तक है। कोचिंग सेंटर्स से 2 लाख नौकरियां सीधे तौर पर और 1.5 लाख नौकरियां अप्रत्यक्ष रूप से पैदा होती हैं। इससे सरकार को 700 करोड़ रुपये तक का टैक्स मिलता है।​ यहां के कुछ 20-30 'स्टार' टीचर्स साल में 1 करोड़ से ज्यादा कमाते हैं। यहां सबसे बड़ा पैकेज 2 करोड़ रुपये का है। कोचिंग संस्थानों में 4,000 से 5,000 शिक्षकों के लिए शुरुआती पैकेज 8 लाख सालाना या 67,000 रुपये प्रति माह है। मोटे तौर पर यहां के 10 प्रतिशत शिक्षक आईआईटीयन हैं।

जिस बच्चे ने आत्महत्या की, क्या वह आशंकित था अपने भविष्य को लेकर? क्या उसको अपनी मृत्यु की आशंका इतनी बलवती थी कि वह अपने जीने की संभावनाओं को अचानक ही खत्म कर रहा था। बताया जाता है कि उस क्लास टेस्ट में उसे एक या दो सवालों के जवाब के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं आता था। इससे पहले भी यह खबरें लगातार वहां से आती रही हैं कि कोटा में छात्र ने आत्महत्या कर ली। कहीं-कहीं उसका कारण किसी तरह के प्रेम प्रसंग भी होते हैं । लेकिन अधिकांशतः केस में छात्र अपनी पढ़ाई की दिशा और दशा से संतुष्ट नहीं होते हैं। उनके ऊपर पढ़ाई का इतना अधिक दबाव होता है कि उनकी कोटा में पढ़ाई को लेकर सपनों की जो दुनिया होती है वह उनके लिए एक ब्लैकहोल साबित हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे मॉब लिंचिंग की जगह वहां स्टूडेंट लिंचिंग या एजुकेशन लिंचिंग हो रही है।

मानसिक, भावात्मक प्रताड़ना

क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी अधिक क्रूर है कि युवा मन वहां आशंका के बीच रहता है और अपने उन्हीं रास्तों पर से जिन पर चलने के लिए वे अपने-अपने घरों से सोच कर आए थे, वे उन पर से बार-बार लौटते हैं, फिर चलते हैं, फिर लौटते हैं लेकिन अंत में उनकी मानसिक, भावात्मक प्रताड़ना उनके आत्मविश्वास को तोड़ कर रख देती हैं। उनको लगता है कि उनकी शिक्षा निरर्थक हो रही है और वे नाकामयाब सिद्ध हो रहे हैं जिसके कारण सिर्फ उनकी श्रेष्ठता का जो पैमाना है वह ही नीचे को नहीं जा रहा है बल्कि उनके ऊपर एक 'असफल' का ठप्पा भी लग जाता है। वहां पढ़ने वाले अधिकांश छात्र मध्यमवर्गीय परिवारों से होते हैं, जो कि अपने परिवारों के नैतिक मूल्यों, त्याग और तप से सिंचित होते हैं। उनके अपने माता-पिता अलग-अलग जगह से क़र्ज़ लेकर या अपनी आर्थिक स्थिति से ऊपर उठकर भी उनके लिए कोटा भेजने का खर्च करते हैं। वह वहां का खर्च उठाते हैं, जिससे उनके बच्चे पढ़ लिखकर एक सुखद भविष्य को बना सके।

जब बच्चा अपने घर से कोटा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए पहुंचता है जो कि बहुत ही कठिन होती है तब वह एक उच्चांक प्राप्त विद्यार्थी होता है । 'ना घर का ना घाट का रह जाना' एक ऐसी सच्चाई होती है जिसका साक्षात्कार कुछ कमजोर मन वाले बच्चे अपनी असल जिंदगी में नहीं कर पाते हैं। वे हताश हो जाते हैं क्योंकि वहां का जो दबाव होता है वह उनके हौसले को तोड़कर रख देता है और इस शिक्षा व्यवस्था के साथ में चलते-चलते वे अपनी राह में पीछे रह जाते हैं। और उनकी एकाकी लड़ाई अपनी शिक्षा को लेकर, अपने स्वास्थ्य को लेकर, अपने संवेदनाओं को लेकर, अपनी भावनाओं को लेकर होती है, जिसमें वे जख्मी हो जाते हैं, असहाय हो जाते हैं और अंत में यह असहायता एक कड़वी हकीकत से, एक कटु हकीकत से, एक दुखद हकीकत से सबको रूबरू कराती है और एक आत्महत्या जैसी घटना के रूप में हमारे सामने निकल कर आती है, जो कि सुनने वाले को, पढ़ने वाले को, देखने वाले को, जानने वाले को और जिसके पास भी समाचार पहुंचता है, उसको झकझोर का रख देती है।

इंजीनियरिंग और मेडिकल की कोचिंग करने आते छात्र

देश भर के विद्यार्थी यहां इंजीनियरिंग और मेडिकल की कोचिंग करने अपने-अपने क्षेत्र से आते हैं, अलग-अलग विद्यालयों से आते हैं । कभी-कभी भी क्लास छठी -सातवीं में ही यहां जाते हैं, कभी क्लास 10वीं पास करने के बाद में आते हैं। तो वे बहुत ही छोटे होते हैं और वे कोटा के माहौल में अपने आप को एडजस्ट कर लें इस वजह से उनके माता-पिता, उनके अभिभावक उन्हें बहुत जल्दी उम्र में यहां भेज देते हैं क्योंकि उनकी आकांक्षाएं इतनी बड़ी होती है कि वह उसके लिए क्लास छठी- सातवीं से ही उसका रास्ता तैयार करने की चाह रखने लग जाते हैं। अधिकतर बच्चे क्लास 10वीं के बाद में यहां आते हैं, यहां आकर वे डमी विद्यालय में एडमिशन लेते हैं और साथ-साथ में अपने इंजीनियरिंग या मेडिकल की कोचिंग करते जाते हैं ।

वह हमारा समय था जब क्लास 12वीं कक्षा पास करने के बाद एक या दो साल का अंतराल लिया जाता था प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए। लेकिन अब माता-पिता का इतना अधिक दबाव होता है बच्चे पर कि वह अपने समय से पहले ही उसकी उन्नति देखना चाहते हैं, उसको प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करते हुए देखना चाहते हैं। इस वजह से वे उन्हें बहुत जल्दी ही यहां भेज देते हैं। यहां के माहौल में जो बच्चे एडजस्ट कर जाते हैं वे जीत जाते हैं और जो बच्चे एडजस्ट नहीं कर पाते हैं वे पेपर में जब अपने कम नंबर देखते हैं तो उन्हें लगता है कि वे अपने माता-पिता की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं ,उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहे हैं जिसके लिए वे भी अपने शौक को तिलांजलि दे चुके होते हैं, अपनी इच्छाओं को खत्म कर चुके होते हैं, तब वे बहुत अधिक हताश हो जाते हैं।

यहां कोचिंग सेंटर्स को भी बच्चों का एडमिशन लेने से पहले एक मनोवैज्ञानिक टेस्ट ले लेना चाहिए कि जो बच्चा आया है क्या वह डॉक्टर/ इंजीनियर बनने लायक है ? क्या वह उतना अपने आप को संभाल पाएगा यहां की परिस्थितियों में? साथ-साथ में अभिभावकों की भी काउंसलिंग होनी बहुत जरूरी है कि मालूम पड़े कि वे अपने बच्चों से कितना भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। माता-पिता को हमेशा बच्चों के लिए इस प्लान ए के साथ में प्लान बी भी जरूर तैयार रखना चाहिए कि अगर वह यहां से नहीं निकल पाता है प्रतियोगी परीक्षा प्रतिस्पर्धा में तो उनके पास में उसके भविष्य के लिए कोई दूसरी योजना या कोई दूसरा विकल्प है। बजाय इसके कि वे अपने बच्चों पर इतना अधिक दबाव डाल दें कि खूब बोलने वाला, बिना संकोच के बोलने वाला बच्चा इतना चुप हो जाए कि वह कभी भी बोल न पाए, वह उस स्थिति तक नहीं जा पाए।

शिक्षा व्यवस्था का एक बड़ा दोष

हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी एक बड़ा दोष यह भी है यहां कि कक्षा ग्यारहवीं में बच्चा जो डमी स्कूल में पढ़ रहा है वह किसी तरह से अपनी परीक्षा निकाल लेता है लेकिन 12वीं में जब बोर्ड के एग्जाम का समय आता है तब विद्यार्थी को यह याद आता है कि उसे 12वीं की परीक्षा देनी है और उसकी भी पढ़ाई करनी है। तब वह अपनी उन किताबों को खोलता है। लेकिन अभी तक, वह पिछले 2 साल से जो प्रतियोगी परीक्षाओं की पढ़ाई कर रहा था वह वैकल्पिक प्रश्नों के उत्तर देने की पढ़ाई थी। लेकिन कक्षा बारहवीं में सभी तरह के प्रश्न आते हैं, वहां पर उसे अन्य विषयों की भी परीक्षा देनी होती है। अब उसके लिए यहां पर बड़ी ही दुविधा वाली स्थिति हो जाती है क्योंकि उसने जिस पैटर्न से पढ़ाई की होती है वह पैटर्न यहां पर काम नहीं आता है। इसके साथ ही बच्चा अगर किसी भी दिन बीमार हो गया और उसकी किसी कारण से एक क्लास या एक दिन की पढ़ाई भी कोचिंग सेंटर की मिस हो जाती है तो वह अपनी क्लास की पढ़ाई में बहुत पीछे चला जाता है। बच्चे अपनी शारीरिक योग्यता और शारीरिक समर्थता से अधिक वहां अपने ऊपर दबाव झेलते हैं और यह भी एक कारण होता है कि बच्चे उस शारीरिक दबाव को अपने समर्थता से अधिक झेलने के कारण खुद को और खुद के शरीर को नुकसान पहुंचाते रहते हैं, जिस कारण वह अंततः बहुत अधिक निराश हो जाते हैं। कोटा में ज्यादातर बच्चे सिंगल रूम शेयर करते हैं जिससे वे दूसरे बच्चों से दूरी बनाकर रख सके, वे अपनी पढ़ाई में किसी का भी खलल नहीं चाहते हैं , ऐसा उनके माता-पिता भी नहीं चाहते हैं ।इस कारण उनकी आपस में एक- दूसरे से बोलचाल बिल्कुल समाप्त हो जाती है ।

वे अपनी उम्र के जिस समय में यहां आते हैं उनके अंदर में भावनात्मक, शारीरिक सभी तरह के बदलाव हो रहे होते हैं तो वह उनके बारे में किस से बात करें, वह अपने मन की हलचल को किसके साथ में शेयर करें , वह अकेले हो जाते हैं और यह अकेलापन भी उनके आत्महत्या का एक कारण होता है। हालांकि अब जिन के माता-पिता के पास में वित्त की कोई कमी नहीं है वे अपने बच्चों को इंजीनियरिंग या मेडिकल के प्राइवेट इंस्टिट्यूट में दाखिला करवा लेते हैं या फिर उन्हें विदेश में पढ़ने भेज देते हैं। लेकिन जो मध्यमवर्गीय परिवार है, उनके लिए कोटा जो की एक सपनों की नगरी रहा/हुआ करता था वह अब आत्महत्या की नगरी बनता जा रहा है।

अलग-अलग इंस्टीट्यूट की भी अगर हम बात करते हैं तो वहां के जो फैकल्टी हैं वे सभी विद्यार्थियों को एक समान पढ़ाते हैं लेकिन वे जानते हैं कि इनमें से कौन विद्यार्थी क्रीम है, कौन विद्यार्थी कर सकता है, वे उनको अलग तरह से पढ़ाते हैं और उनके बैच अलग कर देते हैं। बाकी विद्यार्थियों को भी पढ़ाया जाता है । लेकिन फोकस उन विद्यार्थियों पर अधिक हो जाता है। हालांकि वहां पर काउंसलिंग की सुविधा होती हैं फिर भी बच्चे कितनी काउंसलिंग के लिए वहां जाते हैं और वह उस काउंसलिंग से खुद को कितना रिलैक्स कर पाते हैं, यह भी एक देखने की बात है। छोटे-छोटे कमरों में उनका अकेलापन ,उनके लिए कोई मनोरंजन के साधन नहीं और उसके बाद में शिक्षकों का और उससे भी अधिक उनके अभिभावकों का जो दबाव है वह उन्हें निरंतर परेशान करने लगता है।

हालांकि वहां पर कई इस तरह के भी विद्यार्थी आते हैं कि जिन्हें पढ़ाई से कोई अधिक ताल्लुक नहीं होता है, उनके अभिभावकों ने यहां भेजा है इसलिए वे यहां है । वे अपना समय गपशप करके, इधर-उधर घूम के खत्म कर देते हैं। कई विद्यार्थी ऐसे भी हैं जिनके घर का कोई सदस्य वहां उनकी पढ़ाई के लिए साथ में रहता है ,चाहे उनकी अपने माता-पिता हो चाहे घर का कोई और सदस्य हो। वे लोग अपने बच्चों को भावनात्मक सपोर्ट भी करते हैं और उनका और उनकी जरूरतों का ध्यान भी रख पाते हैं और विद्यार्थी भी अपने मन की बात अपने अभिभावक के साथ में शेयर कर पाते हैं। अन्यथा जो विद्यार्थी अकेले रहते हैं उनके लिए यह अकेलापन भी एक बहुत बड़ा मानसिक संत्रास का कारण होता है।

हालांकि अगस्त महीने में लगातार हुई तीन आत्महत्याओं के बाद वहां के जिला प्रशासन ने अगले दो महीने तक कोचिंग क्लासेस में टेस्ट पर पाबंदी लगा दी है और कमरों में स्प्रिंग लोडेड पंख लगाने का आदेश दिया है। लेकिन इस तरह के उपाय कितने कारगर सिद्ध होते हैं , यह भी देखने की बात है क्योंकि जो विद्यार्थी इन दिनों में आत्महत्या कर रहे हैं वे डबल मैथड सुसाइड कर रहे हैं। उनमें से अधिकतर वे विद्यार्थी हैं जो बहुत कम समय पहले यहां आए हैं , ज्यादातर केस में उनकी पहले से ही कोई साइकइट्रिक हिस्ट्री रही है जिससे वे अपने मानसिक दबाव और शिक्षा के दबाव को झेल नहीं पा रहे थे। इतना अधिक उनके ऊपर दवाब हो रहा था कि उनके लिए आत्महत्या से अधिक आसान कोई भी रास्ता उन्हें नहीं दिखाई नहीं देता था।

डबल मैथड सुसाइड में बच्चे खुद के हाथ बांध लेते हैं, अपने मुंह को प्लास्टिक पॉलिथीन से बांध ले रहे हैं, उसके बाद में सुसाइड कर लेते हैं कि उनके बचने की कोई भी उम्मीद बाकी ना रहे। इस तरह के विषयों पर चुपचाप नहीं रहना है कि शिक्षा नगरी कहे जाने वाली कोटा आत्महत्या नगरी कहलाई जाने लगे। उन परिवारों का क्या जिन्होंने अपने बच्चों को वहां खोया है । वे कोटा के बारे में किस तरह की तस्वीर बना रहे होंगे अपने मन में। कहीं न कहीं उनकी भी कोई गलती होगी कि वे अपने बच्चों के साथ उतना संवाद नहीं रख पा रहे हैं या अत्यधिक दबाव दे रहे हैं जिससे बच्चे निराश, हताश ,परेशान हो जाते हैं। हमें कई अन्य विकल्प भी खोज कर रखने होंगे क्योंकि हर बच्चा तो इंजीनियरिंग या मेडिकल में नहीं जा सकता है । तो वह उससे पलायन या विस्थापन करें या उसके प्रति नफरत करे, उससे अच्छा है कि हम अपनी दुनिया में उनके वापस आने लायक उस रास्ते को बना कर रखें कि वे आत्महत्या कर इस दुनिया से दूर जाने की जगह वापस अपने घर आने की हिम्मत कर सके।

( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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