थरथर कांपते थे अंग्रेज, लेकिन किस्से इनके किताबों में नहीं

सुरेंद्र साए से संबंधित तमाम दस्तावेज भोपाल, रायपुर और नागपुर में आज भी मौजूद बताए जाते हैं लेकिन उड़ीसा सरकार ने इस संबंध में आज तक कुछ नहीं किया। उड़ीसा के बुर्ला में वीर सुरेंद्र साए यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालाजी है। यहीं पर वीर सुरेंद्र साए मेडिकल कालेज भी है। 1986 में भारत सरकार ने इस योद्धा के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था।

Update:2020-01-23 17:21 IST

रामकृष्ण वाजपेयी

आपने आजादी के लिए लड़ने और अपना जीवन बलिदान करने वाले अनगिनत योद्धाओं के बारे में सुना होगा, पढ़ा होगा, लेकिन क्या आपने सुरेंद्र साए का नाम सुना है। आज आजादी के लिए संघर्ष करने वाले महान योद्धा सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन के दिन ही इस योद्धा का भी जन्मदिन है। जो कि सुभाष चंद्र बोस के जन्म से पहले 19वीं सदी के आरंभ में जन्मा और इस सदी का अंत देखने से पहले ही बुझ गया। इस योद्धा के जाने के लगभग एक दशक बाद सुभाष चंद्र बोस का जन्म हुआ। लेकिन यह योद्धा जब तक रहा अंग्रेज हुकूमत की नाक में दम किये रहा और उस हुकूमत के सारे पैंतरे फेल करता रहा। तलवारबाजी के धनी इस योद्धा ने हार मानना तो जैसे सीखा ही नहीं था। जेल ही इस योद्धा का घर रही और जेल ही अंतिम विश्राम स्थली भी बनी।

साथियों की लंबी कतार

सुरेंद्र साए वह भारतीय स्वतंत्रता सेनानी था जिसने अपना सारा जीवन ईस्ट इंडिया कंपनी से लडने में बिता दिया। सुरेंद्र साए उनके सहयोगी माधो सिंह, कुंजल सिंह, ऐरी सिंह, बैरी सिंह, उद्दंत साए, उज्जव्ल साए, खगेश्वर दाओ, करुनाकर सिंह, सालीग्राम बरिहा, गोविंद सिंह, पहर सिंह, राजी घसिया, कमल सिंह, हती पानीग्रही और कई अन्य ने ब्रिटिशर्स से संघर्ष किया ओर ब्रिटिश शासन ने पश्चिमी उड़ीसा क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा कुछ समय के लिए बचाए रखा। इनमें से अधिकांश अंग्रेज हुकूमत की अघोषित लड़ाई में मारे गए। तमाम फांसी पर लटका दिये गए। कुछ अंडमान की सेल्युलर जेल में मारे गए। सुरेंद्र साए का आसीरगढ़ जेल में 23 मई 1884 को निधन हुआ।

सुरेंद्र साए का का जन्म 23 जनवरी 1809 को उड़ीसा के सम्बलपुर के उत्तर में 40 किमी दूर खिंदा गांव में हुआ था। वह अपने पिता धर्मा सिंह की सात संतानों में से एक थे।

ताज के लिए शुरू हुई संघर्ष की कहानी

कहानी की शुरुआत ऐसे होती है कि राजा महाराजा साए बिना उत्तराधिकारी के मर गए। ब्रिटिश सरकार ने उनकी विधवा रानी मोहन कुमारी को उनका उत्तराधिकारी मान लिया। इससे वहां बवाल शुरू हो गया। यह संघर्ष ब्रिटिश सरकार द्वारा मान्य उत्तराधिकारी और संबलपुर राज्य के अन्य दावेदारों के बीच बढ़ता गया। सिंहासन के अन्य प्रमुख दावेदारों में सुरेंद्र साए भी शामिल थे।

इस बीच रानी मोहन कुमारी अपनी राजस्व नीति के चलते जनता के बीच अलोकप्रिय हो गईं। वह गोंडी और बिंझाल समुदाय के लोगों को संतुष्ट नहीं कर पाईं। इनमें इन समुदायों के जमींदार और प्रमुख लोग शामिल थे। इसके बाद ब्रिटिश हुकूमत ने रानी मोहन कुमारी को अपदस्थ कर राजघराने के नारायण सिंह को राज्य सौंप दिया। नारायम सिंह छोटी जाति के थे। ब्रिटिश सरकार ने सुरेंद्र साए की दावेदारी की अनदेखी कर दी। इससे सुरेंद्र साए के नेतृत्व में गोंड जमींदारों ने विद्रोह कर दिया और अराजकता की स्थिति पैदा कर दी।

इसके बाद विद्रोह कुचलने के लिए आई ब्रिटिश सेना के साथ मुठभेड़ में सुरेंद्र साए, उनके भाई उदयंत साए और चाचा बलराम सिंह पकड़े गए और हजारी बाग जेल भेज दिये गए। इस बीच राजा नारायण सिंह की 1849 में मौत हो गई। इसके बाद कोई उत्तराधिकारी न होने पर ब्रिटिश हुकूमत ने संबलपुर राज्य को अपने में मिला लिया।

1857 के विद्रोह के दौरान मिली रिहाई तो फिर किया युद्ध

1857 के विद्रोह के दौरान जब ब्रिटिश हुकूमत विद्रोह को कुचलने में लगी थी उस समय सुरेंद्र साए और उनके भाई उदित साए को छोड़ दिया गया लेकिन सुरेन्द्र साए के नेतृत्व में संबलपुर में अंग्रेजों का प्रतिरोध जारी रहा। सुरेंद्र साए को अपने भाइयों, बेटों, रिश्तेदारों और कुछ जमींदारों का समर्थन हासिल था।

अपनी भाषा संस्कृति का किया विकास

सुरेंद्र साए ने उच्च जातियों और अंग्रेजों के जवाब में अपनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए संबलपुर में आदिवासी लोगों के अपमान को मुद्दा बनाया और संबलपुर क्षेत्र में अपनी राजनीतिक शक्ति स्थापित करने के लिए आदिवासियों को नेतृत्व दिया ।

सुरेंद्र साए ने 1827 में 18 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, 1857 में ओडिशा के पहाड़ी इलाकों में लड़ाइयां लड़ीं और 1862 में आत्मसमर्पण करने के बाद उन्हें हजारीबाग जेल में रखा गया। अपने आत्मसमर्पण से पहले भी उन्होंने 17 साल जेल में बिताए और उनकी अंतिम गिरफ्तारी के बाद कुल 20 साल की अवधि तक वह असीरगढ़ किले की जेल में रहे और यहीं उनकी मृत्यु हुई।

सुरेंद्र साए को पकड़ने की सारी कोशिशें बेकार

1858 के अंत तक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के वीरों की बुरी तरह दमन हो चुका था। पूरे भारत में कानून और व्यवस्था अंग्रेजों द्वारा बहाल कर दी गई थी, लेकिन सुरेंद्र साए ने अपनी क्रांति जारी रखी। अंग्रेजों सुरेंद्र साए के खिलाफ सारे संसाधनों का इस्तेमाल किया। मेजर फोस्टर, कैप्टन एल, स्मिथ जैसे प्रतिभाशाली जनरलों को संबलपुर लाया गया। लेकिन सभी प्रयास विफल रहे और सुरेंद्र साए लंबे समय तक अंग्रेजों की रणनीति को नाकाम करते रहे। मेजर फोर्स्टर उनके उत्तराधिकारी मेजर इम्पी भी साए को नहीं हरा सके।

अंत में लिया छल कपट का सहारा

अंग्रेजों ने विद्रोहियों के पूरे भोजन-भंडार को जब्त कर लिया, विद्रोहियों की भोजन की आपूर्ति और जीवन की अन्य आवश्यकताओं के संसाधनों को भी रोक दिया। सुरेंद्र साए फिर भी न झुके तो अंग्रेजों ने चाल चली। इतिहास के महान क्रांतिकारियों में से एक और एक ऐसा योद्धा जो अपने जीवन में हार को नहीं जानता था, ब्रिटिश सरकार की ईमानदारी पर विश्वास कर आत्मसमर्पण कर दिया। ब्रिटिश शासकों ने एक बार फिर धोखा दिया और महान नायक के साथ हुए समझौते को नकार कर सुरेंद्र साए को जेल में बंद कर दिया और जेल में ही यह योद्धा चिरनिद्रा में सो गया।

सुरेंद्र साए से संबंधित तमाम दस्तावेज भोपाल, रायपुर और नागपुर में आज भी मौजूद बताए जाते हैं लेकिन उड़ीसा सरकार ने इस संबंध में आज तक कुछ नहीं किया। उड़ीसा के बुर्ला में वीर सुरेंद्र साए यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालाजी है। यहीं पर वीर सुरेंद्र साए मेडिकल कालेज भी है। 1986 में भारत सरकार ने इस योद्धा के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था।

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