Indian Court Judgements: अदालतों से साख बचाने की उम्मीद
Indian Court Judgements: 2022 के आँकड़ों पर यक़ीन करें तो देश में पाँच करोड़ कोर्ट केस लंबित हैं। ज़िला व उच्च न्यायालयों में तीस साल से अधिक समय से लंबित मामलों की संख्या 1,69,000 है। दिसंबर,22 तक पाँच करोड़ मामलों में से 4.3 करोड़ यानी 85 फ़ीसदी मामले सिर्फ़ ज़िला न्यायालयों में लंबित थे। देश भर के उच्च न्यायालयों में यह संख्या 59,87,477 है। जबकि अकेले इलाहाबाद न्यायालय में 10,30,000 मुकदमे लंबित हैं। इस हाल के बावजूद, 10 लाख लोगों के लिए भारत में केवल 17 न्यायाधीश हैं।
Indian Court Judgements: किसी भी देश की न्यायपालिका से यह उम्मीद की जाती है कि वह उस देश के संविधान की रक्षा करेगी। देश में बने क़ानूनों को इस तरह लागू करेगी ताकि कोई भी निर्दोष फँसने न पायें। कोई भी दोषी बचने न पाये। न्यायपालिका की ज़िम्मेदारी देश के संस्कृति व समाज की रक्षा करना भी है। न्यायपालिका के लिए अनिवार्य है कि निर्दोष दोषमुक्त हों, दोषियों को सजा मिले, पीड़ितों के अधिकार बहाल किये जायें, दायित्वों के उल्लंघन में उचित सज़ा दी जाए और पीड़ित पक्षों को मुआवजा मिले, किसी विवाद में ‘फ्री एंड फेयर’ निपटारा किया जाये। पर भारतीय न्यायपालिका इन सब मानदंडों में से बहुतायत पर खरी नहीं उतरती है।
यही नहीं, हद तो यह है कि भारतीय न्यायपालिका ‘जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड’( विलंबित न्याय को न्याय की कोटि में नही लाया जा सकता है) के फ़ार्मूले पर काम करती हुई ज़्यादा दिखती है। 2022 के आँकड़ों पर यक़ीन करें तो देश में पाँच करोड़ कोर्ट केस लंबित हैं। ज़िला व उच्च न्यायालयों में तीस साल से अधिक समय से लंबित मामलों की संख्या 1,69,000 है। दिसंबर,22 तक पाँच करोड़ मामलों में से 4.3 करोड़ यानी 85 फ़ीसदी मामले सिर्फ़ ज़िला न्यायालयों में लंबित थे। देश भर के उच्च न्यायालयों में यह संख्या 59,87,477 है। जबकि अकेले इलाहाबाद न्यायालय में 10,30,000 मुकदमे लंबित हैं। इस हाल के बावजूद, 10 लाख लोगों के लिए भारत में केवल 17 न्यायाधीश हैं।
हर समाज, देश और क्षेत्र की एक संस्कृति होती है। बहुत से काम उसी के अनुरूप किये जाते हैं। कानून और न्यायपालिका भी इसी का ही हिस्सा होते हैं। सुप्रीमकोर्ट ने हाल ही में धर्म परिवर्तन संबंधी एक याचिका में टिप्पणी की कि - भारत में लोगों को भारत की संस्कृति के हिसाब से चलना होगा। सही बात है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के आलोक में यह देखने वाली बात है कि अदालतों के कुछ फैसले या निर्देश हमारी संस्कृति के विपरीत क्यों जाते हैं।
सवाल उठता है कि क्या समलैंगिकता और लिव इन रिलेशनशिप भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं? क्या हम पश्चिमी संस्कृति को उधार लेकर उसे सार्वभौमिक संस्कृति कह सकते हैं? जिस तरह तीन तलाक हमारे देश की संस्कृति का हिस्सा नहीं है, उसी तरह बहुत सी अन्य चीजें भी हमारी संस्कृति में शामिल नहीं हैं। उन्हें उसी नजरिए से देखा जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में एक फैसले में आईपीसी की धारा 377 को असंवैधानिक बताते हुए रद कर दिया। यह धारा म्यूच्यूअल सहमति से समलैंगिक सेक्स को अपराध की श्रेणी में रखती थी। 2021 में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि दो वयस्क म्यूच्यूअल लिव इन रिलेशन में रह सकते हैं। यह कोई अपराध नहीं है। इसे क्या भारत की संस्कृति के अनुरूप कहा जायेगा?
न्यायपालिका से उच्चतम आचरण की अपेक्षा की जाती है। उसे एक आदर्श स्थापित करना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है। कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। माफिया अतीक अहमद के एक केस में इलाहाबाद कोर्ट के एक नहीं पूरे दस जजों ने अपने को अलग कर लिया था। बात 2012 की है, अतीक जेल में बंद था। उसने विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमानत के लिए अर्जी दी। 11वें जज ने सुनवाई की और अतीक को जमानत दे दी। सवाल यह है कि उन 10 जजों से क्या कोई जवाबदेही मांगी गई कि उन्होंने केस क्यों नहीं सुना? क्या हुआ उन जजों का? क्या जनता को जानने का अधिकार नहीं?
आख़िर क्या कर्फ़्यू के समय किसी प्रशासनिक अफ़सर को छुट्टी मिलती है? सेना का जवान यह कह सकता है कि वह गोली नहीं चलायेगा?तब जज कैसे एक माफिया के खिलाफ सुनवाई से खुद को अलग कर सकता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुलपति की नियुक्ति के खिलाफ एक याचिका दायर की गई। सुनवाई के बाद फ़ैसला रिज़र्व हुआ। पर अब फिर से सुनवाई होने लगी है। अयोध्या के मामले में सभी पक्ष इस बात की लड़ाई लड़ रहे थे कि किसका दावा सही है। पर अदालत ने फ़ैसला करने की जगह इस मामले में पंचायत कर दिया। हाईकोर्ट ने तीनों पक्षों में राम जन्म भूमि में बराबर बराबर हिस्सेदारी दे दी । सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि स्थान हिंदुओं को तो दिया पर एक मसजिद के लिए ज़मीन भी दे दी!
हम कैसी न्याय प्रणाली में जी रहे हैं कि निचली अदालत किसी मामले में जो फ़ैसला सुनाती है हाईकोर्ट उसे पलट देती है। हाईकोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट पलट देती है। हद तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट में भी बेंचों में जजों की संख्या बढ़ने घटने का प्रभाव भी फ़ैसले पर देखा जा सकता है। ऐसे बेहिसाब मामले मिल जाएंगे जहां तीन लेवल की अदालतों ने एक ही प्रकार के साक्ष्यों पर तीन तरह की व्याख्या की। वैसे ये सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका और इंग्लैंड में भी होता है । लेकिन वहां ऐसे तीन तरह के फैसलों के उदाहरण यदाकदा ही मिलते हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अनुसार दीवानी मुकदमे में तीन से अधिक स्थगन नहीं हो सकते। लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार, 70 फीसदी दीवानी मामलों में तीन से अधिक स्थगन होते हैं। यानी कानून का पालन खुद कानून नहीं कर रहा है।
भारत के ज्यूडिशियल सिस्टम की एक बड़ी समस्या पारदर्शिता की कमी है। जजों की नियुक्ति पारदर्शी नहीं है। जजों की पृष्ठभूमि की कोई चर्चा नहीं होती, कोई पब्लिक स्क्रूटनी नहीं होती। क्योंकि इसकी इजाजत ही नहीं है। जजों को हटाना भी लगभग असंभव होता है। इसके विपरीत अमेरिका में न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में उनका पूरा पुराना हिसाब किताब पब्लिक के सामने रखा जाता है। जनता को सब सवाल पूछने का हक होता है। यही नहीं, वहां जजों के आचरण के बारे में जनता को सवाल पूछने जानने का हक होता है। वहां अवमानना की तलवार हर वक्त नहीं लटकती रहती है।
उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति पर सरकार और सुप्रीमकोर्ट के विचार भिन्न हैं। यह मतभेद बढ़ता ही जा रहा है। भारत में सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम पूरी तरह से कानूनी व्यवस्था के दायरे से बाहर है। यानी एक ऐसा कानून जो कानून के मंदिर पर ही लागू नहीं होता, इससे बड़ी विडंबना क्या होगी?
न्यायपालिका के कामकाज में न्याय की गुणवत्ता और जवाबदेही जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को ठीक से नहीं निपटाया जा सकता है। ऐसे में सवाल है कि उच्च न्यायपालिका में आखिर पारदर्शिता क्यों नहीं है? और ये कैसे आएगी?
अगर किसी न्याय व्यवस्था की नींव कमजोर होगी तो उसका टूटना तय है। भारत में ठीक यही हो रहा है। न्याय न तो शीघ्र होता है, न ही परिणाम स्पष्ट होते हैं और न समानता नज़र आती है। इस स्थिति को बनाने में वकील और जज, वादी व प्रतिवादी सब ज़िम्मेदार होते हैं। हमारे यहाँ न्याय की मूर्ति की आँख पर पट्टी बांध दी गई है। ताकि वह देख न सके। केवल सुन कर फ़ैसला दे दे। देखी हुई चीजें भी कई बार सच नहीं होतीं हैं। पर न्याय की मूर्ति को सुने हुए पर फ़ैसला करना है? हर चीज को अदालत की अवमाननना से जोड़ कर तैयार किया गया रक्षा कवच ठीक नहीं है, क्योंकि जब वकील अपने मुवक्किल के लिए ज़मानत की अर्ज़ी देता है, वह दोष मुक्त बरी कर दिया जाता है, जब चेक बाउंस होने के मुकदमे कहीं कहीं चार पाँच साल जज साहब और वकील साहब मिल कर चला देते हों, कहीं नब्बे दिन में फ़ैसले हो जाते हैं, चार साल बाद यह कह कर मुकदमे को ख़ारिज कर देते हों कि नोटिस समय से पहले दे दी गई थी, सो मुक़दमा मेंटेनेबेल नहीं है, गंगा को लेकर अदालती फ़ैसले इस बात के नज़ीर हैं कि फ़ैसलों की अनदेखी कितनी सहज है - ये सब बातें यही सवाल उठाती हैं कि न्यायपालिका से क्या उम्मीद करें? जब अदालत अपने ही आदेश लागू नहीं करा पाती, जब अपने ही आदेश पलट देती है, जब फैसले की कोई समय सीमा ही नहीं है, यानी जब कुछ भी तय नहीं है तब हम आदर्श न्यायपालिका को भला कैसे छू भी पाएंगे, हासिल करना तो बहुत दूर की बात है।