गलती करना, फिर पछताना, मायावती की सियासी चाल या सियासी मजबूरी

UP Assembly Election: गलती करना। करते जाना। फिर पछताना। लगता है मायावती की सियासी चाल या सियासी मजबूरी है।

Written By :  Yogesh Mishra
Published By :  Shreya
Update:2021-08-04 19:35 IST

मायावती (फाइल फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

UP Assembly Election:

-समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ना बड़ी गलती थी।

- भाजपा के साथ तीन बार गठबंधन की सरकार बनाना बड़ी गलती थी।

- कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ना बड़ी गलती थी।

गलती करना। करते जाना। फिर पछताना। लगता है मायावती की सियासी चाल या सियासी मजबूरी है। उत्तर प्रदेश में बीते दिनों रिक्त राज्यसभा की सीटों के लिए हुए चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार का पर्चा ख़ारिज किये जाने के कारण अपने उम्मीदवार की जीत के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती को यह अहसास हुआ कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सपा के साथ किया गया गठबंधन उनकी एक बड़ी भूल थी। हालाँकि इसे यूँ पढ़ा जाना चाहिए कि उनकी और एक बड़ी भूल थी। हालाँकि इस गठबंधन के चलते ही मायावती के 2019 के लोकसभा में दस सांसद पहुँचने में कामयाब हुए।

जबकि 2014 में मोदी लहर ने मायावती को शून्य पर खड़ा कर दिया था। मायावती की पार्टी के टिकट के दावेदार घट गये थे। टिकट के एवज़ में पार्टी को मिलने वाले कोष पर भी ग्रहण लग गया था। पर अखिलेश यादव के फ़ैसले ने संजीवनी ऐसी दी कि पंचायत के टिकटों के दाम आसमान छूने लगे। अखिलेश यादव ने मायावती के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ने का फ़ैसला न किया होता तो पार्टी जो लंबे समय से मायावती के फ़रमानों से एक कमरे के मार्फ़त चल रही है उसके दिन शेष नहीं रह जाते। 

कांशीराम (फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

एक्शन पॉलिटिक्स जरूरी

यही नहीं, यदि मुलायम सिंह यादव ने साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने की गलती नहीं की होती तो इस दल का भविष्य सोनेलाल, ओम प्रकाश राजभर व निषाद पार्टी से थोड़ा ही ज़्यादा होता। क्योंकि पार्टी को मूलत: कांशीराम ने रिएक्शन के आधार पर ही खड़ा किया था। रिएक्शन के आधार पर खड़ी हुई पार्टी शिखर पर पहुँच तो सकती है। पर शिखर पर बनी नहीं रह सकती है। शिखर पर बने रहने के लिए एक्शन पॉलिटिक्स होनी व की जानी चाहिए। डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी सदन में जनता से निर्वाचित होने में प्राय: इसीलिए कामयाब नहीं हो पाये। क्योंकि उनकी राजनीति भी रिएक्शन के ढाँचे पर खड़ी थी।

15 अगस्त, 1936 में डॉ. अंबेडकर ने बनाया इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी। इसका उद्देश्य था भारत में पूँजीवादी व ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ख़त्म करना। जातिवादी व्यवस्था को तोड़ने का सपोर्ट नहीं किया। कम्युनिस्ट पार्टी ने सपोर्ट नहीं किया। 1937 में 11 राज्यों में प्रांतीय चुनाव हुए। अंबेडकर की पार्टी 17 सीटों पर लड़ी। 14 जीत गयी। 11 सीटें रिज़र्व थी। टाप सभी लोग मराठी थे।आगे भविष्य ख़त्म हो गया।1938 में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर ट्रेड यूनियन राजनीति करने लगे।

1941 डॉ. अंबेडकर ने शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन बनाया। इसके दो सदस्य पहली लोकसभा में जीतकर आये थे। एम आर कृष्णा करीमनगर हैदराबाद से। दूसरे पांडुरंग नाथूँ जी यह शोलापुर से जीत कर आये थे। 30 सितंबर, 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया बनाने जा रहे हैं इसकी अंबेडकर ने घोषणा की। पार्टी बनाने के पहले ही उनकी मौत हो गयी।

उनकी याद में 3 अक्टूबर, 1957 को रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की विधिवत स्थापना हुई। पहले अध्यक्ष बने रायबहादुर एन शिवराज। सांसद रहे। तमिलनाडु के वकील रहे। 2008 आरपीआई 59 टुकड़ों में बंट चुकी थी । 2009 में 49 ने मिलकर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया यूनाइटेड बनाई। एक दो बच गयी उनके पौत्र प्रकाश अंबेडकर की पार्टी थी । जो 49 मिली । वह टूटी। रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया हवाई गुट। अठावले गुट। कांशीराम आठ साल रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया में योगदान दे चुके हैं। एमीहिलेशन ऑफ कास्ट में लिखा है कि दलितों को एक जुट करें गर्व की भावना लायें।शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन अपने काम में असफल हो गया है। 

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

कांशीराम का पार्टी के काम से मोहभंग होना

पार्टी के काम से कांशीराम जी का मोहभंग हुआ। 1978 में उन्होंने बामसेफ बनाया। फिर 1981 में डीएस फ़ोर दलित शोभित समाज संघर्ष समिति बनाया। 1982 में एक किताब लिखी- "द चमचा एज।" यह दो सौ रूपये में उपलब्ध है। इसमें दलित नेताओं का मज़ाक़ उड़ाते हुए लिखा है कि दलित नेता अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए काम करते हैं। तमंचा युग की 24 सितंबर , 1932 को हो गयी थी। क्योंकि उसी दिन पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए थे। उस पैक्ट को अंबेडकर व गांधी ने साइन किया था जिसमें सीटों के आरक्षण बात थी। अंबेडकर जी चाहते थे कि आरक्षितें सीटों पर केवल दलित वोट करें। पर गांधी जी इसके विरोधी थे। वह चाहते थे सीटें भले आरक्षित हों। उम्मीदवार भले दलित हो। पर वोट सब दे। हुआ यही ।

कांशीराम जी ने भी रिएक्शन पॉलिटिक्स को आगे बढ़ाते हुए 14 अप्रैल , 1984 को बसपा गठित की। बहुजन शब्द पाली से लिया। 9 अक्टूबर , 2006 में उनका निधन हो गया।

बसपा पहली बार1991 में चुनाव में उतरी। 12 सीटें आईं। 1996 में 210 सीटों पर लोकसभा लड़ी। 11 सीटें जीती। 4.02 फ़ीसदी वोट पायी। जितने सीटों पर लड़ी उसके हिसाब से 11.21 फ़ीसदी वोट मिले।मध्यप्रदेश-2, पंजाब-3, यूपी-6 सीट मिले। 1998 में 251 सीट पर लड़ी। पाँच जीती। वोट 9.97 हो गया। यूपी में केवल चार सीटें मिलीं। 1999 में लोकसभा 225 सीटों पर लड़ी। 14 जीती। सभी यूपी में । 2004 में 435 पर लड़ी। 19 जीती। 2009 में 500 सीट पर लड़ी। जीती 21 । यूपी में 20 एवं मध्यप्रदेश में एक। 2014 में 503 पर लड़ी । ज़ीरो सीट हाथ लगीं। वोट 4.19 फ़ीसद मिले। 2019 में 383 पर लड़ी , दस जीती। सब यूपी में। 3.67 फ़ीसदी वोट मिले।1993 में यूपी विधानसभा 164 पर लड़ी। वोट 28.52 फ़ीसद मिले। । कुल 67 उम्मीदवार जीते।

1996 में 296 पर लड़ी 67 जीती, 27.73 वोट मिला ।2002 में 401 पर लड़ी, जीती 98, वोट 24.19 फ़ीसद हाथ लगे। 2007 में 403 पर लड़ी, 206 जीती। 30.46 फ़ीसदी वोट मिले।2012 में 403 पर लड़ी। 80 जीती, वोट 25.95 फ़ीसदी ही रहा। 2017 में लड़ी 403 , जीती 19, वोट मिला 22.24 फ़ीसदी मिला।

रिएक्शन पॉलिटिक्स का अंत

इस लिहाज़ से देखें तो रिएक्शन पॉलिटिक्स का अंत दिख रहा है। वैसे भी मायावती ने राजनीति के, सोशल इंजीनियरिंग के सारे सूत्र प्रयोग कर रखें है। वह सभी राजनीतिक दलों से गठबंधन करके उसकी शक्ति अवशोषित कर चुकी है। उसके नतीजे देख चुकी हैं। यही नहीं दलित-ओबीसी, दलित-मोस्ट बैकवर्ड, दलित-मुस्लिम, दलित-ब्राह्मण, दलित-राजपूत, दलित-ब्राह्मण सब खेल चुकी है।

राजनीति में कोई सूत्र दोबारा पिरोकर विजय हासिल नहीं की जा सकती हैं। परंतु मायावती इस फ़ार्मूले को मानने को तैयार नहीं हैं। तभी तो " ब्राह्मण शंख बजायेगा। हाथी पैर जमायेगा" के फ़ार्मूले पर अमल शुरू कर दिया है। यह फ़ार्मूला बसपा ने 2007 में गढ़ा व पढ़ा था। इस बार उत्तर प्रदेश में जिधर भी देखें ब्राह्मण वोटों को अपने पाले में सहेजने की तैयारी दिख रही है। केवल भाजपा यह मान कर चल रही है कि ब्राह्मण जायेगा कहाँ? वह कोई कोशिश करती हुई नहीं दिख रही है। सपा बसपा दोनों ब्राह्मण ब्राह्मण कर रही हैं। सूबे में तक़रीबन बारह फ़ीसदी ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण के साथ ही साथ जितनी भी अगडी जातियाँ हैं , उनका प्रभाव क्षेत्र अपनी संख्या से इतर भी है।

वैसे पिछड़ों की सियासत करने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया के नारे- पिछड़े पावें सौ में साठ, इसकी ओट लेकर पिछड़ों की संख्या साठ फ़ीसदी बताते नहीं थकते हैं। पर डॉक्टर लोहिया के साठ में सभी जातियों व धर्मों की महिलाएँ भी शामिल थीं। इस लिहाज़ से देखें तो 22 फ़ीसदी दलित,18 फ़ीसदी अल्पसंख्यक मिलाकर चालीस फ़ीसदी हो गये। ब्राह्मण उत्तर प्रदेश में बारह फ़ीसद है। क्षत्रिय छह फ़ीसदी। सात फ़ीसदी में शेष अगडी जातियाँ- बनिया, श्रीवास्तव, पंजाबी, खत्री आदि अनेक जातियाँ आती हैं। इस तरह पिछड़ों के लिए केवल पैंतीस फ़ीसदी बचा। उसमें अकेले यादव छह फ़ीसद है।

जातीय राजनीति करने वाले किसी भी दल के लिए ज़रूरी है कि उसके पास कम से कम दो और जातियों का समर्थन हो। पर केवल दो तीन जातियों के बूते पर सरकार बनाने वाले तीस फ़ीसदी के आँकड़े को जुटाना संभव नहीं होता है। सत्ता विरोधी रूझान का केंद्र भी बनना अनिवार्य है। 

योगी आदित्यनाथ- अखिलेश यादव (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

असली लड़ाई भाजपा व सपा के बीच

मायावती गलती करने और उसे स्वीकार करने के कई प्रतिमान गढ़ चुकी है। इसलिए उनके फ़ैसले को इस चश्में से देखें जाने की आदत भी बन गयी है। टिकट से पार्टी का कोष मज़बूत बनाने के फ़ार्मूले के नाते इस बार बसपा के टिकटों के लिए कोई लाइन नहीं दिख रही है। बसपा ने जिस तरह अपने पुराने नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाना शुरू किया है। उससे भी बसपा की तरफ़ नेताओं के रूख नहीं दिख रहे हैं। नेता या तो सपा में जाना चाहते है। या भाजपा से टिकट की चाहत में हाथ में कमल पकड़ रहे हैं।

ऐसे में यह साफ़ दिख रहा है कि लड़ाई सपा व भाजपा के बीच ही होना तय है। जिस तरह अखिलेश यादव ने छोटे दलों के लिए अपने दरवाज़े खोल रखे हैं। उन्होंने अपने चाचा शिवपाल यादव के साथ समझौता किया है। आप पार्टी से बातचीत जारी है। रालोद से पहले से उनका पैच अप है। ओम प्रकाश राजभर भी उनसे दूर नहीं हैं। इसमें एक बार फिर कांग्रेस शामिल हो जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । इस लिहाज़ से बसपा के लिए दलित के सिवाय कोई जगह नहीं है। हालाँकि पश्चिम में चंद्रशेखर रावण मायावती के दलितों के सर्वमान्य नेता होने के दावे पर पलीता लगा देंगे।

अखिलेश यादव के हाथ उस ओर भी बढ़ रहे है। 1898 के बाद कोई सरकार लगातार बनी नहीं रह पायी हे। नोएडा पहुँचा कोई भी मुख्यमंत्री दोबारा ताजपोशी नहीं करा सका है। मोदी अमित शाह की भाजपा के काल में कोई भी मुख्यमंत्री जिसने पाँच साल पूरा किया वह सत्ता में वापसी नहीं कर पाया। हरियाणा में सरकार मिलजुल कर बनानी पड़ी। गुजरात में लड़ाई नेक टू नेक थी। असम में सरकार रिपीट की तो मुख्यमंत्री बदल गये। मध्यप्रदेश में जोड़ तोड़ करके सरकार बनानी पड़ी। इन सबके मद्देनज़र उम्मीद लकी लौ सपा और भाजपा के बीच ही जगती है। मायावती को एक बार और अपनी भूल का अहसास करना पड़ सकता है। 

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