आतंकवाद पर ऐतिहासिक फैसला: कितना सही, कितना गलत

देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा को अदालत ने रिहा कर दिया है। इन तीनों आंतक फैलाने के आरोप थे।

Written By :  Dr. Ved Pratap Vaidik
Published By :  Chitra Singh
Update:2021-06-17 09:42 IST

देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा (डिजाइन फोटो- सोशल मीडिया)

दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) ने अपने ताजा फैसले से सरकार और पुलिस की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। दिल्ली पुलिस (Delhi Police) ने पिछले साल मई में तीन छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार कर लिया था। एक साल उन्हें जेल में सड़ाया गया और उन्हें जमानत नहीं दी गई। अब अदालत ने उन तीनों को जमानत पर रिहा कर दिया है। जामिया मिलिया (Jamia Millia ) के आसिफ इकबाल तन्हा (Asif Iqbal Tanha), जवाहरलाल नेहरू विवि (Jawaharlal Nehru University) की देवांगना कलीता (Devangana Kalita) और नताशा नरवल (Natasha Narwal) पर आतंकवाद (Terrorism) फैलाने के आरोप थे। उन्हें कई छोटे-मोटे अन्य आरोपों में जमानत मिल गई थी, लेकिन आतंकवाद का यह आरोप उन पर आतंकवाद-विरोधी कानून (यूएपीए) के अन्तर्गत लगाया गया था।

ट्राइल कोर्ट में जब यह मामला गया तो उसने इन तीनों की जमानत मना कर दी, लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने उन्हें न सिर्फ जमानत दे दी, बल्कि सरकार और पुलिस की मरम्मत करके रख दी। जजों ने कहा कि इन तीनों व्यक्तियों पर आतंकवाद का आरोप लगाना संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन है। इन तीनों व्यक्तियों पर जो आरोप लगाए हैं, वे बिल्कुल निराधार हैं।

आरोपों की भाषा बड़बोलों और गप्पों से भरी हुई है। ये लोग न तो किसी प्रकार की हिंसा फैला रहे थे, न कोई सांप्रदायिक या जातीय दंगा भड़का रहे थे और न ही ये किन्हीं देशद्रोही तत्वों के साथ हाथ मिलाए हुए थे। वे तो नागरिक संशोधन कानून (CAA) के विरोध में भाषण और प्रदर्शन कर रहे थे। यदि वे कोई विशेष रास्ता रोक रहे थे और उस पर आप कार्रवाई करना ही चाहते थे तो भारतीय दंड संहिता के तहत कर सकते थे, लेकिन आतंकवाद-विरोधी कानून की धारा 43-डी (5) के तहत आप उनकी जमानत रद्द नहीं कर सकते हैं।

न्यायालय के फैसले पर उठे सवाल

दिल्ली उच्च न्यायालय अपने इस एतिहासिक फैसले के लिए बधाई का पात्र है। उसने न्यायपालिका की इज्जत में चार चांद लगा दिए हैं। लेकिन उसने कई बुनियादी सवाल भी खड़े कर दिए हैं। पहला तो यही कि उन तीनों को साल भर फिजूल जेल भुगतनी पड़ी, इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? पुलिसवाले या वे नेता, जिनके इशारों पर उन्हें गिरफ्तार किया गया है ? या वह जज जिसने इनकी जमानत रद्द कर दी ?

दूसरा, इन तीनों व्यक्तियों को फिजूल में जेल काटने का कोई हर्जाना मिलना चाहिए या नहीं ? तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह कि देश की जेलों में ऐसे हजारों लोग सालों सड़ते रहते हैं, जिनका कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है और जिन पर मुकदमे चलते रहते हैं। शायद उनकी संख्या सजायाफ्ता कैदियों से कहीं ज्यादा है। बरसों जेल काटने के बाद जब वे निर्दोष रिहा होते हैं तो वह रिहाई भी क्या रिहाई होती है ? क्या हमारे सांसद ऐसे कैदियों पर कुछ कृपा करेंगे ? वे अदालती व्यवस्था इतनी मजबूत क्यों नहीं बना देते कि कोई भी व्यक्ति दोष सिद्ध होने के पहले जेल में एक माह से ज्यादा न रहे।

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